हमारे समाज में बूढ़ों की दुर्दशा प्रकट है। बहुत से लोग और स्वयंसेवी संगठन संयुक्त परिवार का टूटना इसकी बड़ी वजह बताते हैं, जो कुछ हद तक है भी। हालांकि यह भी समस्या का अधूरा सच है। बूढ़ों को तो हमारे यहां सदियों से वानप्रस्थ में भेजने की व्यवस्था रही है। इसके अंतर्गत राजा को भी हर सुख-सुविधा छोड़ कर जंगल में जाना और अपने प्रयासों से ही भोजन जुटाना पड़ता था। वहां उसकी मदद के लिए कोई नहीं होता था। ऐसे में आम आदमी की कौन कहे। इस पर अनेक फिल्में बन चुकी हैं। कहानियां लिखी जा चुकी हैं। एक तरफ जहां विज्ञान और चिकित्सा सुविधाओं ने बूढ़ों की उम्र बढ़ाई है, वहीं इस बढ़ती उम्र के कारण परेशानियां और अकेलापन भी बढ़ा है। नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के बाद बूढ़े चाहे जितने स्वस्थ हों, काम करने लायक हों, उन्हें फालतू की चीज समझा जाने लगता है। माना जाने लगता है कि अब ये किस काम के, न इनके पास कोई पद है और न ही शरीर में ताकत।

बूढ़े पुरुषों का समय काटे नहीं कटता। दिल्ली के बहुत से पार्कों में आप इन अकेले आदमियों को बैठे देख सकते हैं। परिवार में बाल-बच्चों के साथ रहती बूढ़ी स्त्री का जीवन भी नाती-पोतों को पालते और घर-गृहस्थी के कामों में लगे-लगे ही बीत जाता है। मगर जब बच्चे साथ न रहते हों तो समय कैसे कटे। बहुत से घरों में बच्चे या परिवार के सदस्य न केवल उनका पैसा, बल्कि रहने की छत भी छीन लेते हैं। ऐसे में वे कहां जाएं। इसलिए आजकल बूढ़ों को सलाह दी जाती है कि वे अपने पैसों को ऐसे सुरक्षित खातों में रखें, जिससे कि उनके जीवन में उस पैसे को कोई हाथ न लगा सके। अगर ये अदालतों में जाते हैं तो अकसर अदालतें इनके पक्ष में ही फैसले देती हैं। लेकिन फिर भी अधिकतर मामलों में बूढ़े बच्चों से हार मान लेते हैं। उनके पास जो कुछ होता है, उसे अपने बच्चों को सौंप देते हैं। माताएं इसमें आगे रहती हैं। इसीलिए बूढ़ों में भी स्त्रियों की दशा ज्यादा खराब हो रही है। और अकेली स्त्रियों की मुसीबत तो पूछिए मत। स्त्री चाहे युवा हो या बूढ़ी, उसके अकेले रहने का कोई ठौर-ठिकाना कभी नहीं रहा। आज भी नहीं है। परिवार से बाहर अकेली वह कहां जाए। बूढ़ी होने के बावजूद उसके लिए दुनिया सुरक्षित नहीं, बल्कि तरह-तरह के खतरों से भरी है। अखबार ऐसी आपराधिक घटनाओं को अक्सर छापते रहते हैं।

आजकल बुजुर्गों को कभी बच्चे वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं, कभी तीर्थ में। कभी वे खुद चले जाते हैं। मगर जिस तादाद में बूढ़ों की संख्या बढ़ रही है, उस संख्या में हमारे यहां वृद्धाश्रम भी नहीं हैं। महानगरों में ही अंगुलियों पर गिनने लायक हैं। गांव और कस्बों में तो इक्का-दुक्का भी हों तो बड़ी बात है।

बहुत-से स्वयंसेवी संगठन बूढ़े, खासकर बूढ़ी औरतों की बुरी दशा की तरफ ध्यान दिलाते रहे हैं। बूढ़ों के लिए काम करने वाली संस्थाएं- हेल्पेज और एज वैल अक्सर इस ओर ध्यान दिलाती रहती हैं। पिछले तीस-चालीस साल में बड़ी संख्या में ऐसी औरतें भी दिखाई देने लगी हैं, जो जीवन भर नौकरी करती रही हैं। उम्र के संध्याकाल में ये नितांत अकेली हैं। इनमें से कई तलाकशुदा हैं। बहुतों के पति गुजर गए हैं। बच्चे विदेशों में जा बसे हैं। विदेश की जीवन शैली में ये खुद को और अकेला पाती हैं। वहां इनका जीवन यापन मुश्किल होता है। भाषा, वातावरण और अपरिचय की समस्या अलग से होती है। बच्चे अपने काम पर चले जाते हैं। समय कटे तो कैसे। जिनके बच्चे भारत में हैं, वे या तो दूसरे शहरों में रहते हैं या उसी शहर में अपना अलग आशियाना बसाते हैं।

इन अकेली महिलाओं में बहुत-सी ऐसी भी हैं, जो या तो परिवार की जिम्मेदारी की वजह से सही समय पर विवाह नहीं कर पार्इं और विवाह की उम्र ही निकल गई। जिस परिवार के लिए जीवन लगा दिया, वे भाई-बहन अपनी-अपनी गृहस्थियों में जा बसे और इन्हें भूल गए। या बस कभी-कभार की दुआ-सलाम का ही रिश्ता बचा। बहुत-सी महिलाएं ऐसी भी हैं, जिन्होंने नाना कारणों से अकेली रहना पसंद किया। फिलहाल भारत में डेढ़ लाख स्त्रियां ऐसी हैं, जिन्होंने कभी विवाह नहीं किया। इनकी उम्र साठ से चौंसठ वर्ष के बीच है। इन सभी के लिए बढ़ती उम्र आफत की तरह है। जहां शरीर जवाब दे जाता है और हमेशा किसी सहारे की जरूरत पड़ती है। छोटे-छोटे कामों के लिए कब तक दौड़ें। अकेली हैं, इसलिए किसी अपरिचित को अपने घर में नहीं रख सकतीं। जान जाने और लूटपाट का खतरा हमेशा मंडराता रहता है।

चूंकि ये हमेशा अपने पांवों पर खड़ी रही हैं, इसलिए स्वाभिमान का भाव भी अधिक है। ये किसी पर बोझ बनना नहीं चाहतीं, न किसी के सामने गिड़गिड़ाना चाहती हैं। इसलिए ये महिलाएं अब ऐसे स्थानों का चुनाव कर रही हैं, जहां रिटायर्ड लोग ही रहते हैं। रीयल स्टेट ने भी इनकी जरूरतों को समझा है। अब ऐसे घर बनाए जा रहे हैं, जो न केवल बुजुर्गों को हर तरह की सुविधा दे सकें, बल्कि उन्हें सुरक्षा भी प्रदान कर सकें। रिटायरमेंट कम्युनिटी के नाम से जाने जाने वाले ये फ्लैट्स बेहद सुविधाजनक हैं। यहां सब अपने जैसे मिलते हैं, वृद्ध हैं, एक-दूसरे की जरूरत हैं, मिल-जुल कर रहना चाहते हैं, इसलिए यहां कंपनी और दोस्तों, सहेलियों का अभाव नहीं रहता। रात-दिन का अकेलापन नहीं सताता। अवसाद नहीं घेरता। ऐसा महसूस नहीं होता कि अब हम दुनिया की दौड़ से बाहर हो गए। हमारी कोई सुनने वाला नहीं है। सुख-दुख बांटने के लिए हर समय अपने ही जैसे लोग उपस्थित हैं। साथ ही सुरक्षा, चिकित्सा सुविधाएं, मनोरंजन के साधन, समाज सेवा के मौके भी मौजूद हैं।

अब बहुत-से बिल्डर भी ऐसे घर बना रहे हैं, जिनमें खासकर बड़ी उम्र के लोगों के लिए सहूलियतें हों। इन्हें बड़ी संख्या में अकेली औरतें अपने लिए बुक करा रही हैं। गुड़गांव, अमदाबाद, बंगलुरु, हिमाचल के कसौली आदि स्थानों पर ऐसे घर बन रहे हैं, जो पूरी तरह अकेले बुजुर्गों के लिए हैं। कसौली में बनने वाले अमोक्ष नामक रिटायरमेंट रिसॉर्ट में दस प्रतिशत से अधिक मकान अकेली औरतों ने बुक कराए हैं। इसी तरह अंतरा सीनियर लिविंग में मकान बुक कराने वालों में बड़ी संख्या अकेली औरतें की है। मकान बनाने वाले भी इतनी बड़ी संख्या में औरतों को मकान खरीदने वाली ग्राहक के रूप में देख कर चकित हैं। एक बिल्डर ने कहा भी कि हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि बड़ी संख्या में बुजुर्ग औरतें इन मकानों को अपने दम पर बुक कराएंगी।

हालांकि यह भी सच है कि जिन औरतों के पास पैसे हैं, वही इन सुविधाओं का लाभ उठा पा रही हैं। जिन औरतों के पास पैसे नहीं हैं, वे बुढ़ापे में कहां जाएंगी। कौन उनकी देखभाल करेगा। क्या वे बदहाली में दम तोड़ देंगी। सरकारों को कम से कम इस पहलू पर जरूर विचार करना चाहिए। सरकारी तौर पर भी ऐसी सुविधाएं बड़ी संख्या में दी जानी चाहिए, जहां साधनहीन, अकेली बुजुर्ग औरतें, जीवन के आखिरी दिन सुविधा, सुरक्षा और आराम से बिता सकें।