आजकल हर जगह कृत्रिम मेधा यानी एआइ की चर्चा रहती है। मोबाइल चलाने में दक्ष और एआइ से परिचित बच्चों की किसी कक्षा में अगर पचास-साठ वर्ष की आयु का कोई वैज्ञानिक अपना प्रभाव डालने के लिए पूछे कि गैलीलियो को जहर का प्याला क्यों पीना पड़ा था? फिर स्वयं बताने लगे कि वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि सूर्य स्थिर है, पृथ्वी और अन्य ग्रह उसके चारों ओर चक्कर लगाते हैं। जब तक वह अपनी बात पूरी करेगा, बच्चे उत्तर ढूंढ़ चुके होंगे!
अगर उनसे कहा जाए कि अमुक विषय पर लेख लिखो, तो वह भी कुछ मिनटों में तैयार हो जाएगा। यों, कक्षा में अब अध्यापकों और छात्रों के आने की भी आवश्यकता नहीं है। यह सब कुछ ऑनलाइन हो रहा है, और यह लगातार बढ़ता जाएगा। भविष्य का ज्ञान और कौशल अगली पीढ़ी को पहुंचाने के तरीकों में मशीन और मनुष्य के बीच अपनी-अपनी उपयोगिता को लेकर एक अनदेखी प्रतिस्पर्धा तेजी से उभरेगी। शिक्षा नीतियों पर कारपोरेट जगत का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता जाएगा। वैसे भी निजी स्कूल पूरी तरह कारपोरेट जगत से प्रभावित हैं। जिस ढंग से वे तमाम सरकारी नियमों को धता बताकर मनमानी पुस्तकें खरीदवाते हैं, उससे सब परिचित हैं। यह स्थिति भी नया स्वरूप अवश्य लेगी।
किताब लिखना इतना सरल और सहज कभी नहीं था, जितना अब है। आज बड़े-बड़े राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विचार-विमर्श बहुत सहज और त्वरित हो गए हैं। अनंत संपर्क संभावनाएं खुलती जा रही हैं। यही नहीं, युद्ध का पैमाना बदल गया है, हथियार बदल गए हैं, भविष्य के बड़े-बड़े युद्ध भी शायद प्रयोगशालाओं में बैठ कर लड़े जा सकेंगे!
भारतीय परंपरा में ज्ञान प्राप्ति के प्रथम तीन सोपान हैं- अध्ययन, मनन और चिंतन। चौथा है ‘उपयोग’। उपयोग के लिए आवश्यक कौशल विकसित करने होते हैं। उस ज्ञान का कोई अर्थ नहीं, जो मानव-कल्याण में उपयोगी सिद्ध न हो। ज्ञान के साथ आज के शिक्षा दर्शन में भी कौशलों की उपयोगिता और उनकी बढ़ती आवश्यकता को स्वीकार किया जाता है। उपयोग की कुशलता जब सभी पक्षों के निरीक्षण और परीक्षण से स्वीकार्य हो जाती है, तभी नए ज्ञान का ‘खुला’ उपयोग प्रारंभ होना चाहिए।
ऐसा न होने से परमाणु ऊर्जा के कल्याणकारी उपयोग की जगह, हिरोशिमा और नागासाकी होते हैं। आज भी संपूर्ण मनुष्यता को पृथ्वी से समाप्त कर सकने की क्षमता वाले परमाणु हथियार कई देश सीने से लगाए बैठे हैं। कितने दशक बीत गए, ‘एनपीटी’ केवल कागजों पर विद्यमान है। रासायनिक उर्वरक और प्लास्टिक ऐसे आविष्कार थे, जिन्होंने अपने प्रारंभिक दिनों में सभी को प्रभावित किया, मगर अब उनके दुष्परिणाम तेजी से सामने आए हैं। आखिर यह वैश्वीकरण का युग तो है, लेकिन उससे ज्यादा तीव्रता से यह व्यापारीकरण का युग है। देशों के संबंध व्यापार के परिमाण से निर्धारित हो रहे हैं। खानेपीने-पहनने तक में हमने नकल करने में कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी है। इस हालत में क्या हम सच में बुद्धिमान हैं, जो विश्वगुरु बन सकें!
वैश्विक स्तर पर स्थिति यह है कि हथियार तो बनेंगे ही, कारखाने बंद नहीं हो सकते। उन्हें खरीदने वाले भी तैयार करने पड़ेंगे! बड़ी उम्मीदें थीं कि द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका से निकलने के बाद विश्व अब युद्ध से दूर रहेगा, इसीलिए संयुक्त राष्ट्र (संघ) बना, लेकिन ऐसा कोई वर्ष इस बीच में नही बीता है, जिसमें युद्ध न हो रहा हो, हिंसा न हुई हो, आक्रमण न हुए हों। यह भी मानना पड़ेगा कि कोई वर्ष ऐसा नहीं बीता है, जब शांति-प्रयास न हो रहे हों।
इस सदी में भी मनुष्य की नियति युद्ध की हिंसा और शांति प्रयासों की विफलता के बीच ही झूलती रहेगी। वह कमी कहां रह जाती है कि मनुष्य लगातार हो रही हिंसा और युद्ध से अपने को निकाल ही नहीं पाता है? मनुष्य की पिछली सदी और इस सदी के पहले चौथाई भाग की उपलब्धियों को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि इसका कारण बुद्धि की कमी तो नहीं ही है। भारत में तो हजारों वर्ष पहले से लोग जानते थे कि ‘बुद्धि ही बल है’।
ज्ञान के क्षेत्र में भारत अन्य सभ्यताओं से दर्शन और मानवीय तत्त्व में सबसे आगे रहा, जो कुछ किया या जो चिंतन विकसित किया ‘सर्वभूत हिते रत:’ के दर्शन के आधार पर किया। ऐसे ही दर्शन और वैचारिकता के सम्मान में विश्व के अन्य देशों के लोग भारत को गुरु मानने लगे थे। पर, आगे शायद मेधा का न होकर कृत्रिम मेधा का युग ही बनने वाला है।
आज तो प्रचार-प्रसार के अनगिनत साधन-संसाधन उपलब्ध हैं, लेकन जब नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला में लोग ज्ञानार्जन के लिए भारत को विश्वगुरु मानकर आते होंगे, तो उन्हें आज के समय जैसा ‘सोशल मीडिया’ उपलब्ध नहीं था, न ही टीवी था, न एक-एक-दो-दो पृष्ठ के विज्ञापन देने की सुविधा। पुराने समय में विदेशों से ज्ञान-प्राप्ति के लिए आने वाले यहां के प्रख्यात गुरु, सृजित साहित्य, सशक्त ज्ञानार्जन परंपरा, ज्ञान के प्रति समर्पण और जन कल्याण के लिए किए जा रहे प्रयासों के संबंध में सुन और जानकर ही आते होंगे। प्रश्न बौद्धिक स्तर और योगदान का है, योगदान की गुणवत्ता, नवाचार, समर्पण का है।
उस ज्ञान का क्या महत्त्व, जिसे केवल अपने तथा अपने परिवार के लिए उपयोग किया जाए? विज्ञापन देकर कोई विश्वगुरु नहीं बनता। पीढ़ियों का परिश्रम, त्याग, प्रतिबद्धता और समर्पण जब संस्थागत या साहित्य सृजन द्वारा विश्व को प्रभावित करता है, तभी बौद्धिक या शैक्षिक श्रेष्ठता की अपेक्षा की जा सकती है।