ज्योतिर्मय
भैरव दुर्गा के अनुचर हैं। कुत्ता उनका वाहन है। चमेली के फूल उन्हें खास पसंद है। वे रात्रि के अभिमानी देवता भी हैं। ठीक आधी रात के बाद प्रहर भर तक का उनकी पूजा पाठ के लिए सर्वोत्तम समय माना जाता है। सामान्यतया वे शिव के वह रूप माने जाते हैं, जो रौद्र रूप वाले हंै, भयानक और विकराल। आठ रूपों में से भैरव उनके प्रमुख योद्धा हैं। जिनमें प्रमुक्त काला और गोरा भैरव अति प्रसिद्ध हैं। रूद्र माला से सुशोभित जिनकी आँखों में से आग की लपटे निकलती हैं।
लोग भयभीत हो जाते हैं और कहते हैं कि ये उग्र देवता हैं। लोग सोचते हैं कि साधना वाममार्गी हैं इसलिए उपयोगी नहीं है। प्रत्येक देवता सत्व, रजस और तमस रूप वाले होते हैं। स्वरूप साधकों की कार्यसिद्धि के लिए हैं। उन्हें शिव का पूर्ण रूप बताया गया है। आराधना के लिए किन्हीं कठोर नियमों का पालन भी जरूरी नहीं है। वैसे तो लोग आम-आदमी शनि देवता, काली मां और काल भैरव का नाम सुनते ही घबराने लगते हैं। लेकिन सच्चे दिल से की गई इनकी आराधना वन के रूप रंग को बदल सकती है। ये सभी देवता आपको घबराने के लिए नहीं बल्कि आपको सुखी जीवन देने के लिए तत्पर रहते हंै पर आपको सही रास्ते पर चलते रहना चाहिए।
भैरव अपने भक्तों की सारी मनोकामनाएं पूर्ण करके उनके कर्म-सिद्धि को अपने आशीर्वाद से नवाजते हैं। उनकी उपासना जल्दी फल देने के साथ-साथ क्रूर ग्रहों के प्रभावों को समाप्त कर देती है। कोलतार से भी गहरा काला रंग, विशाल प्रलंब, स्थूल शरीर, अंगारकाय त्रिनेत्र, काले डरावने चोगेनुमा वस्त्र, रूद्राक्ष की कंठमाला, हाथों में लोहे का भयानक दंड और काले कुत्ते की सवारी – यह है महाभैरव, अर्थात मृत्यु-भय के भारतीय देवता का बाहरी स्वरूप।

राग भैरव
शास्त्रीय संगीत में एक राग का नाम इन्हीं के नाम पर भैरव रखा गया है। लगभग पूरे देश में, अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं। कालभैरव पूरे देश में अलग अलग नामों और रूपों में लोकप्रिय हैं। महाराष्ट्र में खंडोबा उन्हीं का एक रूप है। खंडोबा की पूजा-अर्चना गांव-गांव में की जाती है। दक्षिण भारत में भैरव का नाम शास्ता है। भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, कोटरा और रेवती आदि की गणना भगवान शिव के अन्यतम गणों में की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो विविध रोगों और आपत्तियों-विपत्तियों के भी वे अधिदेवता हैं। वे ध्वंस और प्रलय शिव के देवता भी हैं। विपत्ति, महामारी और मृत्यु-अपमृत्यु के दूत और देव उनके सैनिक हैं। इन सब के अधिपति या सेनानायक हैं महाभैरव। कह सकते हैं कि भय वह सेनापति है जो बीमारी, विपत्ति और विनाश के समय उनके संचालक के रूप में उपस्थित रहता है।

शिव के अंश से भैरव का जन्म
‘शिवपुराण’ के अनुसार कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यान्ह समय शिव के अंश से भैरव जन्में। इस तिथि को काल-भैरवाष्टमी के नाम से भी जानते हैं। आख्यानों के अनुसार अंधकासुर नामक दैत्य अनीति और अत्याचार की सीमाएं पार करने लगा, घमंड में चूर होकर वह शिव पर भी आक्रमण कर बैठा तो उसके संहार के लिए शिव के रुधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई। शिव से लेष और द्रोह की और भी कथाएं हैं। कुछ पुराणों के अनुसार शिव का अपमान करने पर भैरव की उत्पत्ति हुई।

पुराणों और तंत्रशास्त्रों में भैरव के आठ रूपों का उल्लेख है। असितांग,रुद्र,चंद्र,भैरव, कपाली, भीषण और संहार-भैरव के अलावा कालिका पुराण में भैरव को नंदी, भृंगी, महाकाल, वेताल की तरह भैरव को शिव के गण बताया गया है। ध्यान के बिना साधक गूंगा बताया गया है, भैरव साधना में भी ध्यान की विशिष्ट महत्ता है। ध्यान का अर्थ है-उस देवी-देवता का संपूर्ण आकार एक क्षण में मानस-पटल पर अंकित होना। सात्विक ध्यान अनिष्ट अपमृत्यु का निवारक और आरोग्य के साथ निश्रेयस की प्राप्ति कराता है, वहीं धर्म, अर्थ व काम की सिद्धि के लिए राजस ध्यान की उपादेयता है, इसी प्रकार कृत्या, भूत, ग्रहादि के द्वारा शत्रु का शमन करने वाला तामस ध्यान कहा गया है। ग्रंथों में लिखा है कि सदा भैरव के सात्विक ध्यान को ही प्राथमिकता देनी चाहिए।