हमारा हृदय जैसा होता है, हमें वैसी ही दुनिया दिखाई देती है। अगर हमारा हृदय निर्मल होगा तो हमें दुनिया भी साफ-सुथरी दिखाई देगी। यदि हमारे हृदय में थोड़ी सी भी घृणा होगी तो हमें दुनिया बेकार और गंदी दिखाई देने लगेगी। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हम अपने हृदय में घृणा पालकर बेहतर समाज बनाने का सपना देखने लगते हैं। यह एक अजीब विरोधाभास है कि हमारे दिल में घृणा विद्यमान रहती है और हम अन्य लोगों से यह अपेक्षा करते हैं कि उनका दिल साफ-सुथरा हो।
जिस तरह हमारे हृदय में घृणा का कुछ अंश मौजूद रहता है, उसी तरह दूसरे लोगों के हृदय में भी घृणा का कुछ अंश मौजूद रहता है। ऊपरी तौर पर हम साफ-सुथरे दिखाई देते रहते हैं लेकिन हमारे अंदर घृणा का तत्त्व बढ़ता रहता है। दूसरी जाति और धर्म के प्रति हमारी यह घृणा अक्सर दिखाई देती रहती है।
विडंबना यह है कि हम इस घृणा को खत्म करने का कोई प्रयास नहीं करते हैं। सच तो यह है कि हम घृणा को बढ़ाने के मौके ढूंढ़ते रहते हैं। जब भी हमें कोई ऐसा मौका मिलता है, हम बेहिचक अपनी घृणा बढ़ाकर ही तृप्त होते हैं। अपनी घृणा बढ़ाकर हम तात्कालिक रूप से तो तृप्त हो जाते हैं लेकिन घृणा के लिए एक नया रास्ता तैयार कर देते हैं। यह आश्चर्यजनक है कि हम पूजा-पाठ करते हैं और तिलक लगाते हैं।
ईश्वर का आशीर्वाद पाने की पूरी कोशिश करते हैं। ईश्वर या के माध्यम से इन सभी प्रक्रियाओं में हमारा सारा ध्यान स्वयं पर ही केन्द्रित रहता है। यानी हमारी कोशिश और अपेक्षा रहती है कि ईश्वर अपना सारा आशीर्वाद सिर्फ हमें या हमारे परिवार को प्रदान कर दे। कुछ अपवादों को छोड़कर प्राय: हम यह प्रार्थना कभी नहीं करते हैं कि यह आशीर्वाद दूसरे लोगों या दूसरे परिवारों को भी मिल जाए।
प्राय: हमारी प्रार्थना में समस्त जगत के कल्याण का भाव निहित नहीं रहता है, बल्कि सिर्फ अपने कल्याण का भाव निहित रहता है। इससे सिद्ध होता है कि हमारी प्रार्थना और पूजा में कितना बड़ा स्वार्थ छिपा हुआ है। अगर हमारी पूजा में भी सिर्फ अपना स्वार्थ छिपा हुआ है तो इसका अर्थ यह है कि पूजा के समय हमारा हृदय निर्मल नहीं रह पाता है। पूजा के दौरान भी हमारे हृदय में घृणा का कुछ अंश मौजूद रहता है। हमारी पूजा और प्रार्थना ऐसी होनी चाहिए कि जिसमें समाज और समस्त जगत के कल्याण का भाव निहित हो।
अगर हमारे दिल में सिर्फ अपने कल्याण का भाव है तो इसका अर्थ यह है कि हम अपने दिल से घृणा का भाव समाप्त नहीं कर पाए हैं। सच्चे मन से तभी पूजा की जा सकती है कि जब हमारा हृदय पवित्र हो। यानी हृदय में लेशमात्र भी घृणा न हो। जब हम पूजा के समय भी पवित्र नहीं रह पाते हैं तो साधारण समय में पवित्र कैसे रह सकते हैं। दरअसल पूजा या प्रार्थना का सच्चा अर्थ और उद्देश्य स्वयं को निर्मल भाव से समर्पित कर देना भी है।
लेकिन क्या हम ऐसा कर पाते हैं ? दिल में किसी भी तरह की घृणा लिए निर्मल भाव से समर्पण नहीं हो सकता। अपने दिल से हर तरह की घृणा बाहर निकाल कर ही हम सच्चे अर्थों में निर्मल हो सकते हैं। यह निर्मलता हमारे अंतर को तो प्रकाशित करती ही है, हमारे बाहरी व्यक्तित्व को भी प्रकाशित करती है। इसके विपरीत घृणा हमारे अंतर को जलाती रहती है। हम एक ऐसी आग में जलते रहते हैं जिससे अंतत: हमें ही झुलसना होता है। इसका असर हमारे बाहरी व्यक्तित्व पर भी पड़ता है।
दिल में घृणा लिए इंसान का चेहरा अलग ही दिखाई देता है क्योंकि घृणा के भाव चेहरे पर भी आ जाते हैं। प्राय: किसी भी इंसान के हाव-भाव देखकर घृणा का अंदाजा लगाया जा सकता है। ज्यों-ज्यों हमारी घृणा बढ़ती है, त्यों-त्यों हम अपना सुख-चैन स्वयं ही छीन लेते हैं। इस तरह चतुर बनने के चक्कर में हम मूर्ख बन जाते हैं लेकिन अपनी मूर्खता स्वीकार नहीं करते हैं। जब हम घृणा करते हैं तो अपनी सारी शक्ति घृणा बढ़ाने में लगा देते हैं, जबकि हमें अपनी शक्ति घृणा दूर करने में लगानी चाहिए। अपने दिल से घृणा हटाकर ही हम सुखमय जीवन जी सकते हैं।