शास्त्री कोसलेन्द्रदास
वैष्णवों की उदार पुरातन परंपरा की सुदृढ़ शास्त्रीय भित्ति के निर्माता हैं रामानुजाचार्य, जो भारतीय परंपरा के मेरुदंड हैं। उनके बिना भारत के अमर संत इतिहास की चर्चा नहीं की जा सकती। उनका दार्शनिक चिंतन अपने-आप में एक संसार है, जिसका आधार भक्ति के आधार पर बनाया समानता का संसार है।
समाधान के सेतु
रामानुजाचार्य का जन्म 1017 ईस्वी में तमिलनाडु के श्रीपेरुंबुदूर में हुआ। वे संस्कृत और तमिल परंपरा के मिलन बिंदु हैं। उन्होंने समाज में ऊंच-नीच और झोपड़ी-महल के बीच समानता के सेतु बनाए। कठोर धार्मिक क्रियाओं को लोगों के लिए सरल और सहज बनाया। ऐसा करते हुए वे अपने पूरे जीवन काल में तीन मोर्चों पर संघर्षरत रहे।
अपनी परंपरा और समसामयिक समस्याओं में सेतु बनाना पहला मोर्चा है। ब्रह्मसूत्रों पर श्रीभाष्य लिखते वक्त वेदांत दर्शन को जीवन की जटिलताओं से जोड़ना दूसरा और भक्ति को आम लोगों के लिए ईश्वर प्राप्ति का आसान तरीका बनाना तीसरा मोर्चा है। उनका पूरा जीवन ही संघर्षरत दिखाई देता है, जिसका संकेत रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में किया है।
वे लिखते हैं कि सामाजिक समता की दिशा में तत्कालीन ब्राह्मण जहां तक जा सकता था, आचार्य रामानुज वहां तक जाकर रुके। उनके संप्रदाय ने लाखों शूद्रों और अंत्यजों को अपने मार्ग में लिया, उन्हें वैष्णव-विश्वास से युक्त किया और उनके आचरण धर्मानुकूल बनाए और साथ ही ब्राह्मणत्व के नियंत्रणों की अवहेलना भी नहीं की।
हृदय में थी अपार करुणा
पद्मपुराण की मान्यता उन्हें भगवान विष्णु की शैया शेष का अवतार बताती है। इसका संकेत चार शताब्दी पहले भक्त चरित्र के सर्वश्रेष्ठ द्रष्टा और गायक नाभादास ने अपने ग्रंथ भक्तमाल में किया है। नाभादास ने आचार्य रामानुज के लोकोत्तर व्यक्तित्व और अदम्य कृतित्व को सूत्रात्मक रूप से प्रकट करते हुए लिखा है- कृपणपाल करुणा समुद्र रामानुज सम नहीं बियो। सहस्र आस्य उपदेस करि जगत उद्धरण जतन कियो॥
महापूर्णाचार्य ने दी दीक्षा
रामानुज के प्राचार्य उस समय भक्ति के सबसे बड़े आचार्य थे। उनका नाम यामुन मुनि है, जिनके पांच प्रमुख शिष्य थे। यामुनाचार्य आलवंदार स्तोत्र तथा सिद्धित्रयम् के लेखक हैं। रामानुज को उनके पांच शिष्यों से भिन्न-भिन्न तत्त्वों का ज्ञान मिला। रामानुज के दीक्षा गुरु महापूर्णाचार्य थे।
भक्ति से मिलता है मोक्ष
आचार्य रामानुज से पहले उनके परमगुरु यामुनाचार्य ने शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धांत का खंडन कर जीव की स्वतंत्र सत्ता का प्रतिपादन कर भक्ति मत को शास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार स्थापित कर दिया था। परंतु वेद और उपनिषदों पर आधारित ब्रह्मसूत्र श्रीभाष्य लिखकर रामानुज ने ही पहले-पहल भक्ति को मोक्ष साधन के रूप में स्थापित किया। भक्ति की वेद-प्रतिपादकता और उसकी मोक्ष-कारणता को मजबूत शास्त्रीय तर्कों के साथ सिद्ध कर दिया। उनके भक्ति सिद्धांत ने मानव मात्र के लिए ईश्वर प्राप्ति के दरवाजे खोल दिए।
उन्होंने भक्ति और शरणागति में जाति भेद, लिंग भेद और वर्ण भेद के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा। यह सब भी मात्र बौद्धिक तर्कों से नहीं, बल्कि सुदृढ शास्त्रीय आधार पर। उन्होंने यह घोषणा ही कर दी कि ‘कोई व्यक्ति इसलिए नीच या ऊंच नहीं हो सकता कि उसका जन्म किस कुल या जाति में हुआ है। उसकी श्रेष्ठता तो ईश्वर के बताए मार्ग पर चलकर उसे पा लेने से ही सिद्ध होती है।’
मिथ्या नहीं, सत्य है संसार
आचार्य रामानुज की सबसे महत्त्वपूर्ण दार्शनिक स्थापना वह विशिष्टाद्वैत है, जिसमें एकमात्र अद्वैत तत्त्व स्वीकारते हुए भी जगत को मिथ्या नहीं कहकर उसकी उपेक्षा नहीं की गई। जगत सत्य है, क्योंकि इसका निर्माण उन पंच महाभूतों से मिलकर हुआ है, जो श्री-भू-नीलानायक श्रीमन्नारायण के शरीर हैं।
भगवान पर है सबका अधिकार
आचार्य रामानुज ने वैदिक मान्यताओं के आधार पर स्थापित किया कि भगवान लक्ष्मीनारायण संसार के माता-पिता हैं। उनका प्रेम और कृपा पाना उनकी संतान का अधिकार है। उन्होंने केवल शास्त्रीय बातें लिखी ही नहीं, बल्कि स्वयं उनका प्रयोग भी किया। दलित भक्त मारीनेरनंबी को अपने संप्रदाय में आदर्श के रूप में स्थापित किया। मुसलिम कन्या तुलुक्क नाच्चियार की लोकोत्तर भक्ति के कारण उनके मंदिर का निर्माण करवाया, जहां आज भी उनकी पूजा होती है। यादवाद्रि के प्रसिद्ध संपत्कुमार मंदिर में दलितों का प्रवेश करवाया।
सामाजिक समरसता का नया आंदोलन
रामानुजाचार्य ने जहां से अपना भक्ति आंदोलन चलाया, वह तमिलनाडु का श्रीरंगम् है। यह नाम अपने आप में भक्ति उत्पन्न करता है। साफ है रामानुज की भक्ति का तात्पर्य भगवान के गुणगान और नाम स्मरण से है। विद्वानों का मानना है कि रामानुज संप्रदाय के मठ-मंदिरों का फैलाव उत्तर और दक्षिण दोनों में था। आश्चर्य की बात है कि रामानुजाचार्य के उन विशाल मंदिरों में से अनेक लुप्त हो गए हैं। यदि इन्हें पुराने रूप में आबाद करना संभव हो सके तो ये सामाजिक समरसता के नए आंदोलन का रूप ले सकते हैं।
संतों के लिए दर्पण
आचार्य रामानुज आज के साधु-संतों के लिए दर्पण भी हैं कि जो आज के दौर के परिवर्तन की दुहाई देकर संन्यास के बदले केवल स्वरूप की पैरवी कर रहे हैं। सत्ता में अपनी जगह बनाने के लिए साधु भगवा चोले का भरपूर उपयोग कर रहे हैं। मठ-मंदिर और गद्दियाँ राजनीतिक पार्टियों से टिकट पाने के साधन बन रहे हैं। संन्यास समझौते में बदलता जा रहा है। यह सही है कि संसार के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन हुए हैं किंतु ऐसे परिवेश में भी संतत्व निखरा रह सकता है। संतों का काम बहुत व्यापक है।
परंपरा में संत तत्व का विशद वर्णन है। योगदर्शन में लिखा है कि व्यक्ति पूर्णत: अहिंसक हो जाए, तो साक्षात विरोधी जीवों में भी अहिंसा की भावना आ जाती है। इसीलिए शाश्वत विरोध वाले बाघ और हिरण एक साथ संतों के आश्रमों में रहते थे, कोई किसी को परेशान नहीं करता था। प्रेम का वातावरण संत बनाते हैं। दुनिया की दूसरी व्यवस्थाओ में उतना दम नहीं है, जितना संतों की व्यवस्था में दम है। इसी व्यवस्था को आचार्य रामानुज ने ईश्वरीय भावना के अनुरूप ढालकर समाज के निर्माण में एक नए युग का सूत्रपात किया था।