पूनम नेगी
तमाम पौराणिक और आध्यात्मिक प्रसंग इसकी महत्ता को उजागर करते हैं। इस पवित्र महीने की सर्वाधिक फलदायी तिथि है कार्तिक पूर्णिमा। जानना दिलचस्प हो कि कार्तिक कृष्ण अमावस्या को जब हम धरतीवासी दीपोत्सव मनाते हैं तो पर्व पूजन में विष्णु व लक्ष्मी के स्थान पर गणेश व लक्ष्मी का पूजन किया जाता है क्योंकि उस समय सृष्टि के संचालक भगवान विष्णु अपनी चातुर्मासीय योगनिद्रा में लीन होते हैं। इसलिए देवोत्थानी एकादशी को श्रीहरि जब अपनी योगनिद्रा त्याग कर जागृत होते हैं तो उनके स्वागत में कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा की पावन तिथि को महादेव की नगरी काशी पावन घाटों पर दीपोत्सव मनाकर श्री हरि और मां लक्ष्मी का साथ में अर्चन-वंदन किया जाता है।
पौराणिक मान्यता के मुताबिक देवगण स्वर्ग से उतर कर इस प्रकाश पर्व के साक्षी बनते हैं। इसी कारण यह उत्सव देव दीपावली के नाम से जाना जाता है। कार्तिक पूर्णिमा की संध्या बेला में कल-कल बहती सदानीरा गंगा के तट पर बसी शिव नगरी के घाटों पर जब वैदिक मंत्रों के बीच शास्त्रोक्त विधि से प्रज्ज्वलित लाखों दीपों की साक्षी में महाआरती का अनुष्ठान किया जाता है, तो चहुंओर दिव्य आभामंडल की सृष्टि हो जाती है।
इस अवसर पर महारानी अहिल्याबाई द्वारा बनवाए गए पंचगंगा घाट का भव्य दीप स्तंभ 1001 दीपों की लौ से जगमगा कर प्रत्येक भावनाशील श्रद्धालु को ‘तमसो मा ज्योर्तिमय’ का पावन संदेश देता प्रतीत होता है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार कार्तिक पूर्णिमा के दिन चंद्रमा ठीक 180 डिग्री के अंश पर होता है तथा इस दिन चंद्रमा से निकलने वाली किरणों का दिव्य विकिरण मन-मस्तिष्क में सकारात्मक भावों का संचार करता है।
एक अन्य पौराणिक प्रसंग जो कार्तिक पूर्णिमा पर आयोजित किए जाने वाले काशी के देव दीपावली उत्सव को आधार देता है, वह है महादेव द्वारा महाअसुर ताड़कासुर के तीन महाबलशाली पुत्रों का अंत कर देवशक्तियों को भयमुक्त करना। स्कन्द पुराण के कथानक के अनुसार शिवपुत्र कार्तिकेय द्वारा तारकासुर के वध से क्रोधित उसके तीनों पुत्रों (तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली) ने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए घोर तपस्या से ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर ऐसा विलक्षण वरदान प्राप्त कर लिया कि उन्हें जीतना असंभव हो गया।
वरदान के क्रम में उन तीनों महाअसुरों ने असुर शिल्पी मयदानव से अंतरिक्ष में तैरने वाली तीन जादुई नगरियों स्वर्णपुरी, रजतपुरी और लौहपुरी का निर्माण कराया। इन असुरों को ब्रह्मा जी से यह वर मिला था कि जब ये तीनों जादुई नगरियां अभिजित नक्षत्र में एक सीधी रेखा में आएं और उस वक्त यदि कोई क्रोधजित महायोगी असंभव रथ पर सवार होकर उन पर असंभव बाण का संधान करे तो ही उनकी मृत्यु हो सके। इस अनूठे इस वरदान के कारण जब उन दानवों के आतंक से देवलोक में चहुंओर त्राहि त्राहि मच गई तब देवशक्तियों की प्रार्थना पर भगवान शिव ने उन असुरों के अंत के लिए एक माया रची।
असंभव रथ को आकार देते हुए उन्होंने पृथ्वी को अपना रथ बनाया जिसमें सूर्य व चंद्रमा उस रथ के पहिये बने, ब्रह्मा जी सारथी और विष्णु जी बाण बने मेरुपर्वत उनका धनुष बना और नागराज वासुकि उस धनुष की प्रत्यंचा। इस तैयारी के साथ काम दहन करने वाले महायोगी शिव ने अभिजित नक्षत्र में उन तीनों पुरियों के एक सीध में आते ही अपने विलक्षण बाण का संधान कर उन तीनों पुरियों का उनमें मौजूद तीनों महादैत्यों के साथ अंत कर दिया। वह पावन तिथि थी, कार्तिक पूर्णिमा। तब उन तीनों महाअसुरों के आतंक से मुक्त होने की खुशी में सभी देवताओं ने काशी के घाटों पर दीप जलाकर दीपोत्सव मनाया। वह शिव नगरी की प्रथम देव दीपावली थी।
हमें इस पौराणिक कथानक के पीछे निहित तत्वदर्शन को आधुनिक संदर्भ में समझने की जरूरत है। अध्यात्मवेत्ताओं ने मानव शरीर के तीन स्तर बताए हैं-स्थूल, सूक्ष्म और कारण। व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास और मानव जीवन के चरम लक्ष्य की सिद्धि के लिए इन तीनों शरीरों का पूर्ण जागरण अनिवार्य है। शिव आदियोगी हैं। उनकी कृपा के बिना यह जागरण संभव नहीं। दैहिक, दैविक और भौतिक, तीनों स्वरूपों के अज्ञान जनित दुगरुणों का नाश करने में सिर्फ महायोगी शिव ही सक्षम हैं। इसलिए वे त्रिपुरांतक कहलाते हैं। त्रिपुरारी पूर्णिमा इन्हीं महायोगी को नमन का पावन पर्व है।
कुछ अन्य रोचक पौराणिक प्रसंग भी इस पर्व की महत्ता बताते हैं। एक बार काशी के राजा दिवोदास ने देवताओं की किसी बात पर नाराज होकर उनका अपने राज्य में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया तब भगवान शंकर ने दिवोदास व देवों में सुलह करवाई जिस पर देवताओं ने काशी में प्रवेश कर कार्तिक पूर्णिमा के दिन दीपावली मनाई।
एक अन्य मान्यता है कि इसी दिन प्रलयकाल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपना प्रथम मत्स्य अवतार धारण किया था। महाभारत के विनाशकारी युद्ध में योद्धाओं और सगे संबंधियों की मृत्यु से दुखी महाराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के साथ गढ़मुक्तेश्वर में कार्तिक पूर्णिमा के दिन स्रान व यज्ञ किया था। तभी से कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा स्नान की परंपरा शुरू हो गई।
इस दिन गंगास्नान सर्वाधिक फलदायी माना जाता है। यही नहीं कार्तिक पूर्णिमा के दिन तमिलनाडु में अरुणाचलम पर्वत की 13 किमी की परिक्रमा होती है जिसमें भाग लेकर लाखों लोग पुण्य कमाते हैं।शीत ऋतु से पहले का अंतिम गंगा स्रानकार्तिक पूर्णिमा के गंगा स्रान की भारी मान्यता है। इसे शीत ऋतु से पहले का अंतिम गंगा स्रान माना गया है। इस मौके पर हरिद्वार, प्रयाग, काशी व उज्जैन से गढ़ मुक्तेश्वर और राजस्थान के पुष्कर तीर्थ में विशेष स्रान पर्व का आयोजन होता है, जिनमें लाखों श्रद्धालु आस्था की डुबकी लगाते हैं। महाभारत युद्ध में दिवंगत परिजनों की पावन स्मृति में पांडवों ने कार्तिक पूर्णिमा को गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ में गंगा स्रान कर संध्या बेला में दीपदान किया था।
ऋतु अनुकूल आहार-विहार की व्यवस्था
अब इस पर्व से जुड़े लौकिक पक्ष की बात करें तो ऋतु परिवर्तन के खास बिंदु की सूचक कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की यह अंतिम तिथि बताती है कि अब मौसम में शीत की ठिठुरन बढ़ेगी। देह विज्ञानियों के मुताबिक वाह्य मौसम का यह बदलाव हमारी दैहिक स्थिति को भी प्रभावित करता है। गर्मी जाने के साथ पित्त शांत हो जाता है जबकि शीत बढ़ने से कफ का प्रकोप बढ़ जाता है। आयुर्वेद के अनुसार शीत ऋतु में जठराग्नि प्रबल होती है, खाया हुआ आसानी से पच जाता है। इसलिए हमारे वैदिक मनीषियों ने इस अवधि में शरीर को बलिष्ठ व ऊजार्वान रखने के लिए दूध, गुड़, घी, तिल, सूखे मेवे और ज्वार, बाजरा, मंडुआ, मक्का और बथुआ, चौलाई, पालक जैसे ऋतु अनुकूल आहार-विहार की जो उत्तम व्यवस्था थी, उसकी उपयोगिता वर्तमान के स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा भी प्रमाणित हो चुकी है।