राज सिंह
इतिहासकार जादूनाथ सरकार के अनुसार मिर्जा नजफखां के साथ भरतपुर के जाटों की लड़ाई में जाट शासक नवल सिंह को स्वामी बालानंद और उनके लश्कर से काफी बल मिला। वे लिखते हैं कि मुगल-जाट संघर्ष, विशेषकर बरसाना के युद्ध में, स्वामी बालानंद के नेतृत्व में जाटों का साथ देते हुए बैरागी सैनिकों ने मुगलों का डटकर मुकाबला किया। यद्यपि उसमें करीब 2000 बैरागी सैनिक शहीद हो गए और युद्ध का निर्णय मुगलों के पक्ष में रहा।
अस्त्र-शस्त्र और अहिंसा-प्रथम दृष्टि में ही विरोधाभासी लगते हैं। लेकिन मुगल एवं ब्रिटिश कालीन भारत में संत योद्धाओं ने शस्त्रों को शास्त्रों से मर्यादित कर अहिंसा की एक नई परिभाषा प्रतिपादित की। वर्तमान परिपेक्ष में इतिहास के उस खंड में झांकना भी बेहद रोचक लगता है जब अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित साधु, धर्म योद्धा की भूमिका में थे। भारत के इतिहास में संन्यासी और बैरागी परंपराओं के अनेक संत योद्धाओं का वर्णन है। साधुओं के युद्ध में पारंगत होने का प्रमाण ‘अकबरनामा’ की एक पेंटिंग से मिलता है जिसमें साधुओं के दो समूह तलवारों से युद्ध कर रहे हैं। यद्यपि इससे भी पहले ग्रंथ बीजक में कबीर दास ने साधुओं की आर्थिक संपन्नता और युद्ध कौशल का जिक्र किया है।
वैसे तो 15 वीं शताब्दी से ही निंबार्क, रामानंदी और विष्णु स्वामी नामक वैष्णव संप्रदायों में मंदिरों, मठों और धर्म गुरुओं की रक्षा करने के लिए साधुओं की सेना होने का प्रमाण मिलता है लेकिन बैरागी साधु संतों की इस सेना को संगठित एवं व्यवस्थित रूप देने का श्रेय स्वामी बालानंद को ही जाता है। संत योद्धा स्वामी बालानंद को कई प्रतिष्ठित मंदिरों के निर्माण का श्रेय भी है। बिहार की राजधानी पटना में प्रसिद्ध महावीर मंदिर वर्ष 1730 में स्वामी बालानंद ने बनवाया था। जयपुर से 50 किलोमीटर दूर सीकर जिले में लोहार्गल में भी उन्होंने कई मंदिर बनावाए।
रामानंदी संप्रदाय में सैन्य साधुओं का प्रथम संगठनकर्ता, 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में आचार्य भावानंद जी को माना जाता है। इस संप्रदाय के ग्रंथों में इसे रामदल बताया गया है। यह बैरागी संतों का एक ऐसा दल था जो स्वामी रामानंद के उपदेशों का प्रचार करता था। दल की छोटी-छोटी जमात मंदिरों मठों और धर्म की रक्षा करना कर्तव्य मानती थी। वैष्णव कबीर में रामदल की स्थापना के संबंध में लिखा गया है कि बैरागी आचार्य के नियंत्रण में यह दल काम करता था। यह दल, कुंभ में एकत्रित होता था। इसके लिए प्रयाग, नासिक, उज्जैन और हरिद्वार के तीर्थ स्थल निश्चित थे।
आचार्य भावानंद के बाद आचार्य अनुभवानंद, विरजानंद और स्वामी बालानंद बड़े प्रतापी आचार्य हुए और उन्होंने राजस्थान को अपने सैन्य संगठन का केंद्र बनाया। जयपुर और भरतपुर उनके प्रमुख केंद्र थे जहां सामरिक सामग्री भी होती थी। राजस्थान में ‘नीम का थाना’ में निंबार्क संप्रदाय का विशाल सैन्य दल 16 वीं शती से ही उपस्थित था। बड़ी जमात और छोटी जमात नाम से यहां 1700 नागा साधुओं की शक्तिशाली सेना होने के प्रमाण मिलते हैं। इस स्थान को आज भी छावनी के नाम से जाना जाता है।
जयपुर के पास नारायणा में दादूपंथी मठ में भी चेन्नई साधुओं का बहुत बड़ा दल होने के प्रमाण हैं। 17 वीं शताब्दी के अंत में तो महंत जैतराम के नेतृत्व में साधुओं का यह सैन्य दल बेहद मजबूत हो गया था। 17वीं और 18वीं शताब्दी में ये संत योद्धा कई राजाओं की सेना का अभिन्न अंग रहे। जयपुर, जोधपुर, भरतपुर और कुल्लू के राजाओं की सेनाओं को जहां बैरागी संत योद्धाओं ने सुशोभित किया, वहीं अनूप गिरि और राजेंद्र गिरि के नेतृत्व में गोंसाई सेना ने मराठा सेना सहित कई सेनाओं में सहयोगी की भूमिका निभाई।
बैरागी परंपरा में यद्यपि अनेक संत योद्धा हुए, लेकिन 18 वीं शताब्दी में स्वामी बालानंद और उनके गुरु विरजानंद का नाम उल्लेखनीय है। इन संत योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम का प्रत्यक्षदर्शी, जयपुर का बालानंद मठ है। इंग्लैंड और अमेरिका के अनेक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में इतिहासकारों ने इन धर्म योद्धाओं पर शोध ग्रंथ लिखे हैं।
वर्ष 1721 में स्वामी बालानंद ने चार वैष्णव संप्रदाय के सैनिक संगठनों का एकीकरण किया। माधव संप्रदाय, विष्णुस्वामी संप्रदाय और निंबार्क संप्रदाय के धर्म योद्धाओं को भी उन्होंने रामदल से जोड़ा और तीन अनियों-दिगंबर, निर्वाणी और निर्मोही तथा 7 अखाड़ों-दिगंबर, निर्वाणी, निर्मोही, खाकी, निरावलंबी, संतोषी और महानिर्वाणी का गठन किया। विष्णुस्वामी, झड़िया निर्मोही और मालाधारी अखाड़ों को भी बाद में जोड़ दिया गया।
दादूपंथी वैष्णव योद्धा भी निर्मोही अखाड़े के साथ आ गए। इस प्रकार सभी वैष्णव संप्रदायों के योद्धाओं को मिलाकर एक शक्तिशाली सैन्य संगठन बन गया। जयपुर पर महाराजा सवाई जयसिंह के शासनकाल से राजा प्रताप सिंह के शासनकाल तक,100 वर्षों में बालानंद मठ में उपस्थित संत योद्धाओं का यह सैन्य संगठन बेहद ताकतवर रहा। स्वामी बालानंद न केवल राजगुरु रहे बल्कि उन्होंने एक कुशल योद्धा के रूप में अनेक युद्धों में भाग लिया।
वर्ष 1818 तक जयपुर पर पूरी तरह ईस्ट इंडिया कंपनी का नियंत्रण हो गया था। इसलिए बालानंद मठ जयपुर में स्थापित वैष्णव संप्रदायों की सैन्य शक्ति, वर्ष 1826 में लगभग विघटित हो गई। भरतपुर राज्य भी अंग्रेजों के अधिपत्य में आ गया था जहां बैरागी सेना का बेहद प्रभाव था। बालानंद मठ के तत्कालीन मठाधीश और बैरागी सेना के सेनापति महंत सेवादास शक्तिहीन हो गए थे। वे लोहार्गल में आध्यात्मिक जीवन के लिए चले गए। अन्य संत सैनिक भी देशभर में फैले अनेक मठों और मंदिरों में रहने के लिए पलायन कर गए। धीरे-धीरे इनकी शक्ति काफी क्षीण हो गई। 400 वर्षों तक महत्त्वपूर्ण सैन्य शक्ति रहा धर्म योद्धाओं का यह संगठन केवल कुंभ के अखाड़ों में सांकेतिक उपस्थिति मात्र रह गया।
(लेखक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैं)