नरपतदान चारण

संतोषं परमं सुखं’ (संतोष ही परमसुख) यह तो सुना ही है लेकिन इसे पाने का रास्ता क्या यह अक्सर लोग नहीं जानते? तो इस सुख को पाना है तो केवल एक मार्ग है, जिसके अलावा कोई और मार्ग नहीं है और वो मार्ग है ‘ कामनाओं पर नियंत्रण अर्थात किसी से कोई उम्मीद न रखो, न भले की न बुरे की न सम्मान की न बहुमान की, न हानि की न सफलता की।

जिस दिन भी किसी ने इस मंत्र को अपना लिया और कामनाओं का परित्याग कर दिया उस दिन मानो वो सुखी हो गया। क्योंकि हमारे अंतर्मन में अनंत इच्छाएं हैं और जितनी ज्यादा इच्छाएं होती हैं, उतना ही असंतोष बढ़ता है। इसी से हम अनेक मुश्किलें अपने जीवन में खड़ी कर लेते हैं। यदि हम अपनी इच्छाओं को कम कर दें तो वे मुश्किलें आसान हो जाएंगी। संत कबीरदास ने संतोष के विषय में कहा है –

गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान॥

अर्थात संतोष मिलने पर अन्य किसी धन की आवश्यकता ही नहीं प्रतीत होती है। सभी प्रकार के धनों में संतोष ही प्रधान है। वहीं आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जो व्यक्ति संतोषी है यानी जो है उसी में खुश है, वास्तव में वही सुखी है। इन बातों के मायने यह कि सफल और सार्थक जीवन का सबसे बड़ा आधार-सूत्र संतोष है। संतोष के परम सुख के विषय में एक संत ने कहा है कि चाह से ही चिंता उत्पन्न होती है। और फिर चिंता ही दुख का कारण है। जिसकी चाहत समाप्त हो गई है वह प्रसन्न है, जितना है उसी में खुश है, ऐसा व्यक्ति ही शहंशाह है।

जिसके मन में संतोष होता है, उसका मन पूरा भरा होता है, किंतु जिसके मन में निरंतर इच्छाएं उठ रही हैं, उसका मन तो कभी नहीं भरता। तब क्यों न हम अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति से हटकर अपने जीवन को ऊंचा उठाने वाली भावनाओं को अपने भीतर विकसित कर लें।

लेखक जेम्स एलन लिखते हैं, ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि वे तब और आनंद से रह पाते या खुद को सौभाग्यशाली मानते, अगर उनके पास फलां-फलां वस्तुएं होतीं। थोड़ी सी संपत्ति और होती या थोड़े से अवसर और मिलते तो ज्यादा सुखी होते, जबकि सच यह है कि जब हमारी आकांक्षाएं और ऐसे दिखावे बढ़ते हैं तो असंतोष ज्यादा बढ़ता है।

यदि सुख और आनंद अपने अंदर नहीं मिल सकता तो यह कहीं और कभी नहीं मिल सकता। संतोष के साथ सुख की बात कबीरदास ने सरल शब्द में कही है अर्थात भगवान से इतना ही कहें कि हे प्रभु मेरे पास इतना हो कि जिसमें मैं और मेरे परिवार का भरण-पोषण हो जाए। अगर कोई संत मेरे द्वार पर आए तो उसे भूखा न जाना पड़े।

जिसने संतोष की इस महिमा को समझ लिया, वास्तव में वही धनवान है और उसी का जीवन सार्थक और संतोषप्रद है।अर्थात वे लोग अधिक सुखी जीवन जीते हैं, जिन्होंने अपने जीवन में संतोष को धारण किया है। जबकि तरह-तरह की कामनाएं-इच्छाएं रखने वाले लोग अक्सर दुखी देखे गए हैं। मिथ्या दृष्टिकोण के कारण ऐसा होता है। इसलिए जो रखे संतोष वही रहे सुखी।