जब किसी महानायक को अवतार बना दिया जाता है, तो उसके जीवन के सामान्य क्रियाकलाप, लीला में बदल जाते हैं। लीला का मतलब है कि वह जो करता है, वह समय में बंधा हुआ नहीं होता। समय में बंधना, कार्य-कारण शृंखला से बंधना है। समय में जो पहले घटा है उसे कारण, और जो बाद में घटता है उसे कार्य कह दिया जाता है। इस तरह परंपरा, मनुष्य को अपने मुताबिक ढालने लगती है।

इससे मनुष्य कुछ भी खुद करने के लिए स्वतंत्र नहीं रह जाता। इस गुलामी से छूटने को हमारे यहां भव-बंधन तोड़ना कहा गया। जो इससे बंधा नहीं है, उसे लीलाधर अवतार बना दिया जाता है। यह माना गया कि कर्म उसे बांधते नहीं, पर वह अपनी मर्जी से कर्मों के बंधन में बंधने का अभिनय करता है। कर्म-फल के रूप में सुख-दुख का अनुभव भी करता है। पर उसके लिए वह वास्तविकता नहीं, अभिनय है। इसलिए उसे लीला कह दिया गया।

जब इस अवतारवाद और लीला की धारणाओं को लाया गया, तो उसका उद्देश्य यह दिखाना था कि अगर कोई चाहे तो जीवन को अभिनय मान सकता है और मृत्यु तक को लीला। वह अहं से मुक्त होकर समझ सकता है कि मुझसे जो कर्म हो रहे हैं, उन्हें मैंने नहीं किया, प्रकृति ने मुझसे करवा लिया है। इस समझ को ज्ञानमार्ग कहा गया। या वह कर्मफल का मनसा परित्याग कर सकता है। फिर उसे उसके परिणाम की फिक्र नहीं होगी। यह भी जीवन-मुक्त होने का एक तरीका है।

अवतार का मतलब है, जो पहले से ही जीवन-मुक्त है। समय के चक्र के पार खड़ा है। पर वह समय में प्रवेश करता है। फिर वह ऐसी लीला करता है कि हमें लगे कि समय चक्र या भव बंधन को तोड़ना मुमकिन है। तो, इसका जो उद्देश्य था, वह सबको समय में होकर पार झांकने की राह पर ले जाना था। पर हुआ यह कि लोग अवतार जैसा जीवन जीने के बजाय, मानने लगे कि यह तो अवतारों के वश की बात है। हमारे हिस्से तो भक्ति आती है। तो अवतारवाद के पीछे-पीछे जो भक्तिवाद चला आया, उसने अवतारवाद के पीछे खड़े, समय के बहुमूल्य दर्शन को पतनशील बना दिया।

राम और कृष्ण, दोनों ऐसे अवतारों की तरह विकसित हुए, जिन्होंने समय के चक्र को दो अलग दिशाओं से तोड़ने का रास्ता खोला। राम जीवन से होकर समय के पार होने के रास्ते पर गए और कृष्ण समय के पार खड़े होकर जीवन में उतर सकने की लीला करते रहे। पुराण का अर्थ है, वह जो पुराना है, वह समय के साथ हमेशा नया होता है। यानी पुराना कुछ नहीं होता। वह जो पुराना है, वह नष्ट नहीं होता। वही नित नूतन होता रहता है। नए में पुराना छिपा पड़ा रहता है। वेद, उपनिषद और शास्त्रीय दर्शन, समय की इन गुत्थियों को बारीकी से खोलते हैं। पुराणकाल उसके बाद का है। यानी ईसा की पहली शती से थोड़ा पहले।

वेदों, उपनिषदों और षड्दर्शनों में समय या काल की बहुत सूक्ष्म व्याख्या मिलती है। उसे बौद्ध सर्वास्तिवाद ने अभूतपूर्व ऊंचाई पर पहुंचा दिया था। पर उनके मत के निरीश्वरवादी होने के कारण, ब्राह्मणवाद उसे स्वीकार नहीं कर पाया। तब अवतारवाद की पीठ पर सवार भक्तिवाद को लाया गया। वह आसान रास्ता था, इसलिए जल्द ही लोकप्रिय हो गया।

उसे बौद्ध मत के प्रभाव को आठवीं शताब्दी के बाद, भारत में प्राय: निर्मूल कर देने में सफलता मिल गई। बाद में लिखे गए भागवत पुराण ने इस भक्तिवाद को जनमानस के हृदय में प्रतिष्ठित करने में अपार सफलता पाई। इन पुराण कथाओं ने अवतारों के लीला-गायन की इतनी अहमियत दी कि भारत में सगुण भक्ति का आंदोलन ही प्रकट हो गया।

राम और कृष्ण की इन पुराण सम्मत लीलाओं में मौजूद समय की अवधारणा दो तरह की है। राम की लीलाओं में निहित समय की अवधारणा प्रच्छन्न रूप में बौद्ध हीनयान से मिलती-जुलती लगती है, जबकि कृष्ण की लीलाएं सर्वास्तिवाद के अधिक निकट हैं। बौद्ध दर्शन में समय के रहस्य को समझाने के लिए उसकी तुलना नदी के प्रवाह से की गई है। नदी में दिखाई देने वाला जल हर क्षण नया होता है। मृत्यु को भी समय प्रवाह में उपस्थित एक नए क्षण की तरह जीने को वहां निर्वाण कहा गया। नागार्जुन और दिंङनाग क्षण को इतना अधिक महत्त्व देते हैं कि वही जीवन के रहस्य को खोलने के द्वार में बदल जाता है।

ये चिंतक क्षण में शताधिक विभाग करते हुए, समय के पार मौजूद शून्य में ठहरने की बात करते हैं। कृष्णलीला में, शून्य की विराटता को, विश्व रूप की विराटता बना दिया गया। जहां जरूरत पड़ती है, कृष्ण अपने इस विराट रूप को प्रकट कर देते हैं। तब देखने वाले को लगता है कि समय का प्रवाह, भूत-वर्तमान-भविष्य सहित, उनके विराट-रूप में तत्क्षण घटित हो चुका है। राम और कृष्ण के अवतारवाद के गठन में बौद्ध दर्शन और उसके क्षणवाद की जमीन को हम आज भी पहचान सकते हैं। पर बदकिस्मती से हमारे अवतारवाद ने अपनी वह दार्शनिक जमीन खो दी है।