पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में मुसलमान एवं दलित मतदाताओं की चुप्पी ने राजनीतिक दलों को असमंजस में डाल रखा है। बंगाल की 130 सीटों पर मुसलमान मतदाता निर्णायक हैं। पश्चिम बंगाल में दो करोड़ 46 लाख मुसलमानों में से एक करोड़ 90 लाख बांग्ला बोलने वाले मुसलमान हैं। पांचवें और छठे चरण में मतुआ व मुसलमान मतदाता उम्मीदवारों की सियासी तकदीर तय कर रहे हैं। इन दोनों चरणों में 88 सीटों पर चुनाव कराए जा रहे हैं। पांचवें चरण में 45 सीटों पर शनिवार को वोट पड़े। बाकी सीटों पर छठे चरण में मतदान होंगे।
बंगाल में करीब 30 फीसद मुसलमान आबादी है। इस समुदाय का 130 सीटों पर सीधा प्रभाव है, जहां वे जीत-हार तय करते हैं। इनमें से करीब 90 सीटों पर पिछले विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को जीत मिली थी, लेकिन इस बार भाजपा व तृणमूल के साथ मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने और मुसलमान वोटरों को वापस अपने साथ लाने के लिए वाममोर्चा और कांग्रेस ने फुरफुरा शरीफ दरगाह के पीरजादा और प्रमुख मुसलमानों के धार्मिक नेता अब्बास सिद्दीकी की कट्टपंथी पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आइएसएफ) के साथ गठजोड़ किया है।
भाजपा की उम्मीद
वामो-कांग्रेस-आइएसएफ गठबंधन, तृणमूल कांग्रेस एवं अन्य के बीच मुसलमानों के वोट बंटने की उम्मीद भाजपा ने लगा रखी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में जीत के बाद से बंगाल फतह का ख्वाब देख रही भाजपा को लग रहा है कि त्रिकोणीय मुकाबले से उसे फायदा होगा। पिछले लोकसभा चुनाव में यह साबित भी हुआ था। मालदा जैसे मुसलमान बहुल जिले में भाजपा, मुसलमानों के वोट बंटने से एक लोकसभा सीट जीतने में कामयाब रही थी जबकि एक अन्य सीट पर महज कुछ हजार के अंतर से भाजपा प्रत्याशी जीतने से रह गया।
इसके अलावा, मुसलमान बहुल उत्तर दिनाजपुर जिले की रायगंज लोकसभा सीट भी भाजपा पहली बार जीतने में कामयाब रही। पश्चिम बंगाल में जहां तक फुरफुरा शरीफ के पीरजादा की बात है, तो 12 से 15 लाख बांग्लाभाषी मुसलिम परिवारों पर इनका प्रभाव माना जाता है। अब्बास सिद्दीकी के प्रति खासकर मुसलमान युवाओं का रुझान अधिक है, जो तृणमूल कांग्रेस के लिए चिंता का सबब है।
46 सीट खास
पश्चिम बंगाल में कुल 294 विधानसभा क्षेत्रों में से 46 में मुसलमानों की संख्या 50 फीसद से अधिक है। 16 सीटें ऐसी हैं, जहां मुसलमानों की आबादी 40 फीसद से अधिक, 33 सीटों पर 30 फीसद से अधिक और 50 सीटों पर 25 फीसद से अधिक है। उत्तर व दक्षिण 24 परगना, मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तर व दक्षिण दिनाजपुर, नदिया और वीरभूम जिलों में मुसलिम वोटों को ध्यान में रखकर ही उम्मीदवार तय किए जाते रहे हैं।
बंगाल विधानसभा में अब तक हुए पांच चरणों में सिर्फ चौथे चरण को छोड़कर बाकी सभी में मुसलमानों की भूमिका अहम मानी गई है। माना जा रहा है कि अगर 50 फीसद से ज्यादा मुसलमान वोट और 25 से 30 फीसद हिंदू वोट तृणमूल को नहीं मिले तो उसकी मुश्किलें बढ़ सकती हैं। हालांकि, तृणमूल कांग्रेस के नेता महिला और मुसलमान मतों के उनकी पार्टी के पक्ष में ध्रुवीकरण की उम्मीदें जता रहे हैं।
2006 के चुनाव में मुसलमानों का 46 फीसद वोट वामो को, 25 फीसद कांग्रेस को और 22 फीसद तृणमूल कांग्रेस को मिला था। 2011 के चुनाव में लेफ्ट और तृणमूल कांग्रेस के बीच यह अंतर सात फीसद का रहा था। 2014 के आम चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने 40 फीसद मुसलमानों का वोट हासिल कर के 34 लोकसभा सीटों पर कब्जा कर लिया था। उस चुनाव में लेफ्ट और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था, लेकिन दोनों को कुल मिला कर 55 फीसद मुसलमान वोट मिले थे, मगर उसका सीटों में फायदा उन्हें नहीं मिल पाया।
मत विभाजन
पिछले विधानसभा चुनाव यानी 2016 में वामो और कांग्रेस ने गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा था, लेकिन तब इस गठबंधन को अल्पसंख्यकों के सिर्फ 38 फीसद वोट मिले जबकि तृणमूल कांग्रेस के लिए मुसलमानों के समर्थन में जबरदस्त उछाल आया और उसे 51 फीसदी मुसलमानों ने वोट दिया था। तब तृणमूल कांग्रेस ने 294 में से 211 सीटें हासिल की थी।
2019 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 70 फीसद मुसलमानों का वोट मिला जबकि वाम मोर्चा को 10 और कांग्रेस को 12 फीसद वोट मिले। तब बंगाल में 40 में से 22 लोकसभा सीटों पर तृणमूल कांग्रेस का कब्जा हो गया और 18 सीटें भाजपा को मिलीं। दूसरी तरफ, भाजपा को 2014 में आम चुनाव में बंगाल में 16 फीसद वोट मिले थे, जो 2019 में बढ़कर 40 फीसद तक पहुंच गया। उसे 50 फीसद से ज्यादा हिंदू वोट मिले थे।
इन चुनावों में मुसलमानों के अलावा मतुआ आबादी की भी बहुत चर्चा है, जो बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थी हैं। उनकी कुल वोटों में हिस्सेदारी 15 फीसद तक बताई जाती है। भाजपा और तृणमूल दोनों ने ही इन्हें लुभाने की कोशिश की है, लेकिन किसी भी पार्टी ने उन्हें आबादी की भागीदारी के हिसाब से सीटों में हिस्सेदारी नहीं दी है। ल्ल
जीत हार के कारक
ममता की छवि
तृणमूल कांग्रेस अपनी नेता ममता बनर्जी की लड़ाकू छवि को आगे करके मैदान में हैं। हाल में चुनाव आयोग के द्वारा प्रतिबंध के फैसले के बाद ममता जिस तरह से धरने पर बैठीं, उन्होंने अपनी लड़ाकू छवि को और पुख्ता किया है।
अंफान का असर
मई 2020 में चक्रवाती तूफान अंफान आया। राहत सामग्री और केंद्रीय मदद बांटने में बड़े पैमाने पर घपले का आरोप तृणमूल समर्थकों पर लगा। भाजपा ने इसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया है।
मत स्थांतरण
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बड़ा फायदा वाममोर्चा के मतों का उसके हिस्से में चले जाने से हुआ। वाम मोर्चा 35.8 फीसद से घटकर 7.5 फीसद पर सिमट गई। भाजपा 40 फीसद से ज्यादा के आंकड़े तक पहुंच गई।
अस्मिता की राजनीति
तृणमूल कांग्रेस ने बाहरी एवं बंगाली अस्मिता का मुद्दा उठाया है। बंगाल के 19 जिलों में से चार में 30 फीसद जनसंख्या गैर-बंगाली मतदाताओं की है।
मत फीसद
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और तृणमूल के मत प्रतिशत का अंतर तीन फीसद था। यह फासला 2016 के विधानसभा चुनाव में 30 फीसद से ज्यादा था। 2014 के लोकसभा में अंतर लगभग 25 फीसद था, जो 2011 के विधानसभा में 36 फीसद से ज्यादा था।
सांगठनिक बाहुबल
बंगाल में चुनावी समीकरणों पर सांगठनिक बाहुबल का खासा असर दिखता है। 2018 में तृणमूल कांग्रेस ने 34 फीसद से ज्यादा ग्राम पंचायतें निर्विरोध जीतीं, तब सांगठनिक बाहुबल की बातें सामने आई थीं।