उत्तर प्रदेश को लेकर भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व एक पखवाड़े से काफी बेचैन दिख रहा है। सबसे बड़े राज्य में विधानसभा चुनाव आठ महीने बाद होगा तो बेचैनी स्वाभाविक भी है। लोकसभा में पार्टी ने 2019 में इस सूबे की 80 में से सहयोगियों सहित 64 सीटों पर सफलता पाई थी। पिछले विधानसभा चुनाव में तो उसने नतीजों से सभी को चौंका दिया था। सूबे की 403 में से 312 सीटें जीतकर भाजपा ने दो दशक बाद अपना वनवास खत्म किया था।

पिछले हफ्ते पहले आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले और फिर भाजपा के महामंत्री (संगठन) बीएल संतोष व प्रभारी राधामोहन सिंह ने कई दिन लखनऊ में सत्ता और अपने संगठन से जुडे़ लोगों की नब्ज टटोलने में लगाए तो चर्चाओं का बाजार गरम हो गया था। इन चर्चाओं में योगी आदित्यनाथ को हटाने, आइएएस से नेता बने अरविंद शर्मा को सरकार में लेने, पार्टी के सूबेदार को बदलने और योगी मंत्रिमंडल के विस्तार जैसी अटकलें शामिल थीं। फिर अचानक योगी आदित्यनाथ को आलाकमान ने दिल्ली तलब किया। वे पहले गृहमंत्री अमित शाह, फिर पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और अगले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले। उनकी मुलाकात के बाद शाह और नड्डा भी प्रधानमंत्री से मिलने गए। साफ है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा निकट भविष्य में कुछ तो बदलाव करेगी ताकि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की जा सके।

अब जरा इस बेचैनी के तात्कालिक कारणों को भी देख लें। पश्चिम बंगाल में लगे झटके ने पार्टी के इस मिथ को तोड़ दिया कि अमित शाह और नरेंद्र मोदी किसी भी चुनाव की बाजी को पलटने का हुनर रखते हैं। इसके बाद उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव के नतीजे भी झटका देने वाले रहे। कोरोना संक्रमण के बावजूद योगी सरकार ने अगर पंचायत चुनाव कराने का जोखिम उठाया था तो वजह हाईकोर्ट का आदेश भर नहीं था, कहीं न कहीं योगी की मंशा अपने जनाधार को नए सिरे से टटोलने की भी जरूर रही होगी। यह बात अलग है कि इस चक्कर में खुदा ही मिला न विसाले सनम, कहावत से पाला जरूर पड़ गया।

पंचायत चुनाव में तो पराजय से सामना हुआ ही, कोरोना संक्रमण बेकाबू होने और उसके सामने सरकारी इंतजामों की पोल खुल जाने से सरकार की बदनामी अलग हुई। गंगा में सैकड़ों शव तैरते मिले हों या अस्पतालों में बिस्तर, आॅक्सीजन सिलेंडर और जरूरी दवाओं की किल्लत का मुद्दा रहा हो या बेहिसाब मौत, सरकार की खूब भद पिटी। मुख्यमंत्री के इस बयान से तो भाजपा के समर्थक तक आगबबूला थे कि उत्तर प्रदेश में आॅक्सीजन और बिस्तर का कोई संकट नहीं है। ऊपर से इलाहाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी जमकर फटकार लगाई।

नतीजतन योगी की लोकप्रियता को लेकर पार्टी आलाकमान का भ्रम टूट गया। बीएल संतोष ने विधायकों, मंत्रियों, सांसदों और पार्टी पदाधिकारियों सभी का मन टटोलने के बाद समझ लिया कि हालात अच्छे नहीं हैं। पार्टी में गुटबाजी है तो विधायकों में असंतोष। सरकार में जनप्रतिनिधियों की कोई पूछ नहीं। मुख्यमंत्री पर अपनी जाति के नेताओं-अफसरों को तरजीह देने के आरोप भी खूब सुने संतोष ने।

अब जरा पंचायत चुनाव के नतीजों पर भी निगाह डाल लें। किसान आंदोलन ने समूचे राज्य में न सही पर कम से कम पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो भाजपा की नींद उड़ा रखी है। मंत्रियों तक की हिम्मत नहीं कि किसानों के बीच जाकर तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों के फायदों का बखान कर सकें। वाराणसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है। पंचायत चुनाव में यहां भी भाजपा को जोर का झटका लगा। जिला पंचायत की 40 में से भाजपा यहां केवल 7 सीटें ही जीत पाई। कोरोना संक्रमण से भी सरकार के प्रति यहां लोगों का गुस्सा बेकाबू था। गंगा के घाटों पर शवों के अंतिम संस्कार तक के लिए अगर दो-तीन दिन इंतजार की नौबत आ रही थी तो नजला लोग सरकार पर ही तो निकालते।

मोदी के भरोसेमंद और आइएएस से नेता बने अरविंद शर्मा खुद वाराणसी में सरकारी इंतजामों की नाकामी देखकर चकित थे। जाहिर है कि उन्होंने प्रधानमंत्री को सूबे की सरकार और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कामकाज के बारे में जानकारी दी ही होगी। तभी तो यह किस्सा भी खूब उछला कि पांच जून को योगी आदित्यनाथ के जन्मदिन पर नरेंद्र मोदी और अमित शाह से लेकर जेपी नड्डा तक तीनों में से किसी ने भी बधाई नहीं दी। निहितार्थ यही निकलना था कि योगी से नेतृत्व अब खुश नहीं है।

2017 के विधानसभा चुनाव में तो कम वोट पाकर भी बहुकोणीय मुकाबलों के कारण भाजपा ने 403 में से 312 सीटें जीत ली थीं। वोट तो उसे 40 फीसद से भी कम मिल पाए थे। सपा और बसपा के वोट मिलकर उससे कहीं ज्यादा थे। लेकिन सपा ने कांगे्रस से गठबंधन किया था तो बसपा अकेले लड़ी थी। सपा को 47, बसपा को 19 और कांगे्रस को महज 7 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। उससे ज्यादा नौ सीटों पर तो अपना दल ने सफलता पाई थी।

अगले साल यूपी के साथ ही पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के चुनाव भी होंगे। लेकिन भाजपा के लिए यूपी सबसे अहम इस मायने में है कि प्रधानमंत्री संसद में इसी सूबे की नुमाइंदगी करते हैं। यहीं लोकसभा की 80 सीटें हैं। हिंदुत्व की मुखर प्रयोगशाला भी यही सूबा है। हिंदुत्व कार्ड अगर यहीं पिट जाएगा तो दूसरे राज्यों और अगले लोकसभा चुनाव के नतीजों पर उसका प्रभाव पड़ने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता।