उत्तर प्रदेश में लोकसभा की दो सीटों के उपचुनाव पर अब सबकी निगाहें टिकी हैं। आजमगढ़ और रामपुर सीट के लिए मतदान 23 जून को होगा। रामपुर सीट मोहम्मद आजम खान और आजमगढ़ सीट अखिलेश यादव के त्यागपत्र के कारण खाली हुई हैं। दोनों ही विधानसभा के सदस्य चुने जा चुके हैं। आजमगढ़ में बसपा ने भी अपना उम्मीदवार उतारा है। पर दोनों ही सीटों पर मुख्य मुकाबला भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच ही नजर आ रहा है। सपा ने आजमगढ़ से पूर्व सांसद धर्मेंद्र यादव को उम्मीदवार बनाया है तो रामपुर में मोहम्मद आजम खान की पसंद के उम्मीदवार आसिम रजा मैदान में हैं।
भाजपा ने आजमगढ़ में फिर भोजपुरी गायक दिनेश यादव निरहुआ पर ही दांव लगाया है। जो 2019 के आम चुनाव में अखिलेश यादव से ढाई लाख से भी ज्यादा मतों से हार गए थे। रामपुर में भाजपा ने घनश्याम लोधी को उम्मीदवार बनाया है। जो आजम खान के करीबी माने जाते हैं। पर अब वे आजम को ही चुनौती दे रहे हैं।
जहां तक आजमगढ़ सीट का सवाल है, इसे सपा का गढ़ माना जाता है। इसकी वजह यहां यादव और मुसलमान मतदाताओं की संख्या 50 फीसद से भी ज्यादा होना माना जाता है। मोदी लहर में 2014 में इस सीट से मुलायम सिंह यादव ने चुनाव लड़ा था। उनके मुकाबले भाजपा ने उन्हीं के पुराने चेले रमाकांत यादव को उम्मीदवार बनाया था, जिन्होंने 2009 में पहली बार यह सीट जीतकर भाजपा की झोली में डाली थी। मुलायम के मुकाबले बसपा ने भी गुडडू जमाली को मैदान में उतारा था। त्रिकोणीय लड़ाई में बेशक जीते तो मुलायम ही थे पर फासला महज 77 हजार वोट का ही रह गया था। वजह थी बसपा के गुडडू जमाली का 2,66,528 वोट ले जाना।
रामपुर सीट पहले तो कांगे्रस की पक्की सीटों में गिनी जाती थी। वजह थी रामपुर के नवाब जुल्फिकार अली उर्फ मिक्की मियां का प्रभाव। उन्होंने खुद छह बार यहां से जीत दर्ज की और उनके बाद तीन बार उनकी पत्नी नूर बानो ने। लेकिन 2004 में आजम खान ने नूर बानो के मुकाबले जब यहां से जया प्रदा को सपा का उम्मीदवार बनवाया तो समीकरण उलट गए। बेगम हार गईं। अगली बार 2009 में फिर सपा उम्मीदवार की हैसियत से जया प्रदा ने ही यहां से जीत दर्ज की। यह बात अलग है कि उस चुनाव में आजम खान उनके खिलाफ थे।
रामपुर में भाजपा अब तक तीन बार जीती है। पहली बार 1991 में राम लहर में राजेंद्र शर्मा विजयी हुए थे। दूसरी बार 1998 में मुख्तार अब्बास नकवी ने इस सीट पर नूर बानो को हरा कर नया इतिहास रचा था। तीसरी बार 2014 में राज्य के पूर्व मंत्री नेपाल सिंह ने सीट जीतकर भाजपा की झोली में डाली थी। पर अब यह सीट अखिलेश यादव के लिए कम आजम खान के लिए प्रतिष्ठा का कहीं बड़ा मुद्दा बन चुकी है। घनश्याम लोधी को भरोसा है कि आसिम रजा को आजम खान जैसा जन समर्थन नहीं मिल पाएगा। भाजपा के लिए यहां जीत का एक ही फार्मूला है कि चुनाव में मतदाताओं के बीच सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो जाए।
आजमगढ़ के समीकरण वैसे तो सपा के पक्ष में माने जाते हैं, पर बसपा ने गुडडू जमाली को मैदान में उतार कर मुसलमान वोट में सेंध लगाने की रणनीति अपनाई है। बसपा के लिए विधानसभा चुनाव की तरह उपचुनाव में भी भाजपा से बड़ी शत्रु सपा है। गुडडू जमाली इस लोकसभा क्षेत्र की मुबारकपुर विधानसभा सीट से 2017 में विधायक चुने गए थे।
धर्मेंद्र यादव को निरहुआ तभी मात दे सकते हैं बशर्ते वे यादव मतदाताओं में सेंध लगा पाएं। राजनीति भी कैसा मजेदार खेल है। कभी निरहुआ को अखिलेश यादव ने सिर माथे बिठाया था। अखिलेश की सरकार थी तो 2012 के बाद उन्हें राज्य सरकार का ग्यारह लाख रुपए का सबसे बड़ा यश भारती पुरस्कार दिया था। वे सैफई के समारोह में भी कलाकार की हैसियत से शामिल हुए थे। लेकिन समय का चक्र कितना विचित्र है कि 2019 में पहले अखिलेश यादव के खिलाफ और अब उनके चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव के खिलाफ वे ही चुनावी जंग लड़ रहे हैं। उपचुनाव के नतीजे 26 जून को आएंगे। तभी तय होगा कि अखिलेश यादव और आजम खान की पकड़ अपनी सियासी जमीन पर कितनी पुख्ता है। भाजपा के लिए दोनों ही सीटों पर खोने के लिए कुछ नहीं है।