90 की उम्र पार कर चुके एम करुणानिधि और 80 की उम्र वाले प्रकाश सिंह बादल की तरह बीते हफ्ते 75 साल के हुए शरद पवार महज अपनी उम्र के आधार पर अपनी अहमियत नहीं जता सकते। वे कितनी बार सांसद बने या फिर राज्य विधानसभा में उनकी पार्टी की ताकत कितनी है, इस आधार पर भी उनकी ताकत को बहुत ज्यादा नहीं आंका जा सकता। कांग्रेस को छोड़कर जब भी उन्होंने किसी पार्टी की अगुआई की, वे किसी राज्य विधानसभा में बहुमत नहीं हासिल कर पाए। इसके बावजूद, वे 1991 से लेकर 2009 तक हर बार संभावित पीएम कैंडिडेट के तौर पर देखे जाते रहे। उनके आलोचक कुछ भी कहें, लेकिन उन्होंने दो दशक से भी ज्यादा वक्त से दिल्ली की राजनीति में एक अहम हैसियत बना ली है। हालांकि, उनके पीएम बनने की चाहत या दिल्ली में उनके लंबे करियर से उनकी अहमियत का असली तौर पर पता नहीं चलता।
पवार एक ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने राजनीति को बतौर करियर लिया है। जब तक टॉप पर पहुंचने का मकसद साफ न हो, किसी के लिए इस पैशन से राजनीति से सालों और दशकों से जुड़े रहना आसान नहीं है। पवार आजादी के बाद के उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसने राजनीति का व्यवसायीकरण की संभावनाओं को तलाशना शुरू किया। पवार ने एक ऐसे वक्त में करियर का सपना देखा, जब राजनीति को इसके विकल्प के तौर पर नहीं देखा जाता था। इसके अलावा, राजनीति के लिए ट्रेनिंग हासिल करने का रिवाज भी भारत में नहीं था। पवार की राजनीतिक योग्यता को उस वक्त ऊंचाई मिली, जब 1978 में वे पहली बार महाराष्ट्र के सीएम बने। हालांकि, राजनीतिक हालात ने 1990 के दशक में उनकी सर्वोच्च पद पर पहुंचने की मनोकामना को पूरा नहीं होने दिया। आज बहुत सारे लोग राजनीति को करियर के तौर पर देखते होंगे, लेकिन पवार अपने वक्त से काफी आगे थे।
पवार की राजनीति के दो जटिल आयाम थे। पहला राज्य बनाम राष्ट्रीय का आयाम। पवार ने बीतते वक्त के साथ राज्य स्तर की राजनीति में जड़ें जमाईं और बाद में वे धीरे से राष्ट्रीय स्तर की ओर बढ़ गए। उन्होंने पहली बार राज्य स्तर की पार्टी के साथ 1978 में प्रयोग किया। हालांकि, उस वक्त आंध्र प्रदेश और कर्नाटक क्षेत्रीयकरण के दौर में दाखिल हो रहे थे। दो दशक बाद, पवा र ने फिर से पार्टी बनाई, जिसका आधार क्षेत्रीय था। दोनों ही बार, उन्हें सीमित कामयाबी मिली। दोनों ही बार वे अपने साथ राज्य कांग्रेस का आधा से ज्यादा हिस्सा अपने साथ नहीं जोड़ सके। क्षेत्रीयकरण को लेकर उनका आकलन कामयाब नहीं हुआ। हाल ही में दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने माना था कि महाराष्ट्र की राजनीति में क्षेत्रीयकरण का बेहद सीमित स्कोप है। प्रदेश कांग्रेस पर पूरा नियंत्रण हासिल न कर पाना उनके राष्ट्रीय मंसूबों के आड़े आता रहा। आज भी वे क्षेत्रीय राजनीति के केंद्र में बने हुए हैं, साथ ही साथ वे राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रभावशाली खिलाड़ी के तौर पर काम कर रहे हैं। बहुत सारे लोगों में इस तरह राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दो आयामों में संतुलन बनाए रखने का हुनर नहीं होता।
पवार की राजनीति का दूसरा जटिल आयाम यह है कि उनकी राजनीति जनवादी नहीं, बल्कि बहुलतावादी रही है। मसलन जब वे कहते हैं कि जवाहरलाल नेहरू और यशवंतराव चवन उनके राजनीतिक आदर्श हैं तो वे एक तथ्यात्मक बयान दे रहे होते हैं। पवार अपनी गुंजाइश के हिसाब से राजनीति करने के लिए जाने जाते रहे हैं। उन्होंने अपने संबंध सभी राज्यों और पार्टियों तक बनाए। राजनीति के इस तरीके की वजह से शुरुआती तौर पर उनका इंदिरा गांधी से जबकि बाद में बाल ठाकरे से आमना-सामना हुआ। पवार ने अपनी राजनीति का स्टाइल नहीं बदला। 1995 में ठाकरे ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया। इस हार ने पवार के करियर पर असर डाला। हालांकि, अगर आप पवार के लंबे करियर पर नजर डालें तो पाएंगे कि उनके राजनीति का स्टाइल ही उन्हें अपने समकालीनों से अलग करता है। पवार शायद इकलौते ऐसे राजनेता होंगे, जिनका जनाधार ग्रामीण क्षेत्र का होते हुए वे पूंजीवादी और शहरी राजनीति से सामंजस्य बैठाने में कामयाब हुए। पवार ने शहरी राजनीति की अहमियत को समझा। पवार का बहुलतावादी राजनीतिक स्टाइल और शहरी राजनीति को अडॉप्ट करने की योग्यता ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है। हालांकि, इसकी वजह से उनकी राजनीति एक सीमा के अंदर ही विस्तार हासिल कर पाई। उनके 75वें जन्मदिन पर हर राजनीतिक पार्टी ने उनकी तारीफ की। कोई नहीं जानता कि इस नजदीकी का क्या मतलब है। हालांकि, शरद पवार होने की सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि राजनीति में कोई ठोस राजीनतिक रुख अख्तियार करना।
(लेखक पुणे की सावित्री बाई फुले यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र पढ़ाते हैं।)