अमर सिंह की सपा में वापसी की कहानी चंद्रकांता संतति का किस्सा बन गई है। ‘न तो को और न मो को ठौर’ जुमला एकदम सटीक बैठ रहा है। अमर सिंह ने किस दल में ठौर ठिकाना नहीं तलाशा सपा से बाहर होने के बाद। पर किसी ने भाव नहीं दिया। मजबूरी में लोकसभा चुनाव रालोद उम्मीदवार की हैसियत से आगरा की फतेहपुर सीकरी सीट से लड़ना पड़ा। हार तो तय ही थी, पर हसरत तो पूरी हो ही गई। कितना जनाधार है, पता चल गया। उसके बाद तो सपा के कद्दावर मुसलिम चेहरे आजम खान के लिए उनकी लानत-मलानत करना आसान हो गया। दोनों में अदावत जगजाहिर है। जब भी मुलायम या अखिलेश से मिलते हैं, अटकलें शुरू हो जाती हैं। पिछली दफा सैफई महोत्सव में पहुंचे। पत्रकारों ने मुलायम से पूछा कि कब घर वापसी होगी किसी जमाने के उनके हनुमान की। मुलायम भी मंजे खिलाड़ी ठहरे। पहलवानी करते हुए सियासत में आए थे। सो, दाव-पेंच में माहिर हैं। फरमाया कि अमर सिंह उनके दिल में रहते हैं। पर दल में कब आएंगे, इसका खुलासा नहीं किया। हालांकि बीच में एकाध बार मुलायम ने उनकी तारीफ में कसीदे भी पढ़े थे। कहा था कि अमर सिंह भरोसे लायक साथी थे। अब पार्टी में वैसा कोई भरोसे लायक नेता नहीं। सपा में अब नेताजी अकेले कोई फैसला नहीं करते। अखिलेश की राय भी मायने रखती है जो अमर सिंह की वापसी में सबसे बड़ा रोड़ा बने हैं। इटावा में मुलायम ने कहा था कि अमर सिंह उनके दिल में रहते हैं। कन्नौज में पत्रकारों ने इसी सवाल पर अखिलेश को घेरा तो जवाब मिला- दिल और दल में कौन बड़ा है, इसका फैसला आप लोग कर लें। तो क्या अमर सिंह सिर्फ दिल में ही भाते हैं, दल में उनकी जरूरत नहीं। हकीकत तो यही है कि अमर सिंह सूबे की सियासत में अपनी प्रासंगिकता गंवा चुके हैं। अखिलेश को अमर गाथाएं अभी तक याद हैं। वे उन्हें पार्टी में लेकर आरोपों की बौछार क्यों कराएं? पार्टी से निकले थे तो सारी मर्यादाएं तोड़ी थीं। क्या-क्या नहीं कहा था मुलायम और उनके कुनबे के बारे में। नेताजी के राज खोलने की धमकी तक दी थी। अगले साल विधानसभा चुनाव है। ऐसे में अमर सिंह को तरजीह देकर आजम खान की नाराजगी का अंजाम बखूबी समझता है मुलायम परिवार। कभी खुद को अमिताभ बच्चन का छोटा भाई बताने वाले अमर सिंह की अब बच्चन परिवार में भी तो कोई हैसियत नहीं बची है।
बैसाखी की मजबूरी
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को सहारा चाहिए। तृणमूल कांग्रेस के मुकाबले सूबे के पार्टी नेता वाममोर्चे के साथ गठजोड़ को फायदे का सौदा मान रहे हैं। यही समझाने वे पिछले हफ्ते दिल्ली आए थे। पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी को समझाया। लेकिन वाममोर्चे के साथ गठजोड़ में भी तो कई बाधाएं हैं। इसी चक्कर में फैसला लटका है। नतीजतन माकपा नेता खफा हैं। मोर्चे के घटक दल तो कांग्रेस से गठबंधन के खिलाफ ही हैं। दरअसल पश्चिम बंगाल के ही कई कांग्रेसी नेता वाम मोर्चे के बजाए तृणमूल कांग्रेस से हाथ मिलाने के पैरोकार थे। पिछला विधानसभा चुनाव दोनों पार्टियों ने मिल कर ही लड़ा था। सरकार भी बनाई थी। पर साल भर में ही रिश्तों में ऐसी खटास आ गई कि गठबंधन टूट गया। केंद्र की यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेकर बेशक इसकी शुरुआत तृणमूल कांग्रेस की तरफ से ही हुई। जहां तक वामपंथियों का सवाल है उनकी घबराहट दोहरी है। एक तरफ ममता बनर्जी की चुनौती है, तो दूसरी तरफ भाजपा के जनाधार में तेजी से बढ़ोत्तरी का डर। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपना जनाधार बढ़ाया था। कांग्रेस से ज्यादा वोट मिले थे पार्टी को। तभी तो जनवरी में पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कांग्रेस को गठजोड़ का न्योता खुले मंच से दिया था। पर कांग्रेस ने कोई प्रतिक्रिया खुलकर नहीं जताई। मोर्चे के घटक दलों के एतराज की वजह भी दीगर है। केरल में भी तो चुनाव है। वहां तो असली लड़ाई कांग्रेस से ही है वाम मोर्चे की। अब सबकी निगाहें इसी हफ्ते कोलकाता में होने वाली माकपा की बैठक पर टिकी हैं। उसी से संकेत मिलेगा कि सियासी ऊंट किस करवट बैठेगा।
बनते-बिगड़ते रिश्ते
राजनीति में कौन कब सगा बन जाए और कब पराया, पता नहीं चलता। राजस्थान में वसुंधरा राजे की सियासत भी इसकी बानगी है। कभी मुख्यमंत्री के चहेतों में गिने जाते थे स्वास्थ्य मंत्री राजेंद्र राठौड़। लेकिन अब चेहरे पर पहले जैसी मुस्कान नहीं दिखती। हवा तो आजकल जयपुर के सरकारी गलियारों में परिवहन मंत्री युनूस खान और सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री अरुण चतुर्वेदी की सुनाई पड़ती है। राठौड़ से दूरी लोकसभा चुनाव के बाद बनी। चूरू जिले के साथ ही शेखावाटी इलाके की जाट-राजपूत सियासत के चलते भी वसुंधरा को नए समीकरण बनाने पड़ गए। तभी तो झटका दिया राठौड़ को। राठौड़ विरोधी गुट के हैं चुरू के भाजपा सांसद राहुल कस्वां। उनके एक परिवारजन को मंत्री जैसा ओहदा थमा वसुंधरा ने चतुर राजनेता होने का प्रमाण दे दिया। जहां तक अरुण चतुर्वेदी का सवाल है, वे पार्टी के सूबेदार रह चुके हैं। आरएसएस से भी करीबी नाता है। राठौड़ को तरजीह देने से एक तो संघी खफा थे, ऊपर से जाटों में असंतोष बढ़ा था। बेचारे राठौड़ अपनी अनदेखी का अब तो वसुंधरा विरोधी ओम माथुर के दरबार तक में रोना रो आए। हालांकि माथुर इस समय अमित शाह की टीम में उपाध्यक्ष हैं और यूपी के प्रभारी भी। पर राजस्थानी हैं तो दिलचस्पी छूटती नहीं सूबे की सियासत से। राठौड़ की अनदेखी का राजपूतों में प्रतिकूल असर न पड़े, इसका भी बंदोबस्त कर रखा है वसुंधरा ने। उद्योग मंत्री गजेंद्र सिंह खींवसर और ऊर्जा राज्यमंत्री पुष्पेंद्र सिंह को खूब तवज्जो मिल रही है। अनदेखी का ही नतीजा है कि सदन में सरकार का बचाव अब बुझे चेहरे से करते हैं राठौड़। संसदीय कार्य मंत्री हैं तो जवाबदेही से बच कैसे सकते हैं?
साजिश का जाल
कभी पंजाब भाजपा के टाईगर कहे जाते थे नवजोत सिद्धू। अमृतसर लोकसभा सीट पर जीत की हैट्रिक बनाई थी तो भी अरुण जेटली के लिए पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें अमृतसर से वंचित कर दिया गया। लगता है कि इतने भर से संतुष्ट नहीं है पार्टी आला कमान। तभी तो अनदेखी का सिलसिला अनवरत जारी है। अमित शाह ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की रणनीति पर मंत्रणा के लिए दिल्ली में पंजाब के नेताओं को बुलाया था। पर सिद्धू को नहीं। बेशक शाह सफाई दे सकते हैं कि बैठक कोर कमेटी के नेताओं की थी और सिद्धू उसमें है नहीं। पर पिछले दिनों तो सूबेदारी तक के लिए जिसके नाम पर विचार की बात सामने आई हो उसे न बुलाना समझ से परे है। अविनाश राय खन्ना के साथ दूसरा नाम सूबेदारी के लिए सिद्धू का ही था। संकेत तो यही मिला था कि इस बार गैर-सिख के बजाए सिख को सूबेदार बनाना चाहती है पार्टी। लेकिन कोर कमेटी में उन्हें नहीं बुला कर फिर उन अटकलों को हवा दी गई है कि अब सिद्धू आलाकमान की पसंद नहीं रहे। उनके विरोधियों ने माहौल बना कर उनकी राह में रोड़े भी तो कम नहीं अटकाए। कोई आम आदमी पार्टी से नजदीकी की बात उड़ा रहा है तो कोई कांग्रेस से उनकी नजदीकी बढ़ने की।
नीकु बनेंगे चाणक्य
नीकु हर कदम सोच-समझ कर उठाने के लिए जाने जाते हैं। नीकु यानी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को विरोधी भी दूरदर्शी मानते हैं। भाजपा और केंद्र की मोदी सरकार के विरोध में मुखर तो पहले से ही थे। पर बिहार के चुनावी नतीजों के बाद तो वे मोदी के खिलाफ सारे देश में अलख जगाने के फेर में लगे हैं। मुद्दों की तो सियासत में कमी होती नहीं। फिलहाल बिहार में मजे से सरकार चला रहे हैं। केंद्र के साथ टकराव की जरूरत भले न हो, पर इस मामले में वे पीछे भी नहीं रहना चाहते। इस साल असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु व पुड्डुचेरी में चुनाव हैं। अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब समेत कई और राज्यों में चुनाव होगा। नीकु अपनी तरफ से मोदी, उनकी सरकार और पार्टी के विरोध का सिलसिला चुनाव वाले राज्यों में भी तेज करना चाहते हैं। भाजपा विरोधी पार्टियों की कतार में आगे दिखना चाहते हैं। भाजपा को नुकसान हुआ तो नीकु की वाहवाह हो जाएगी। नहीं हुआ तो कहेंगे कि इन राज्यों में उनकी पार्टी का कोई जनाधार तो था नहीं। पर भाजपा को नुकसान होने पर नीकु का सितारा केंद्र में भी चमकने लगेगा। फिलहाल तो एक ही दांव आजमाने की रणनीति बनाई है। भाजपा विरोधी दलों को एकजुट करना। इन पार्टियों के नेताओं को वे बिहार की मिसाल देकर एकता के फायदे भी गिना रहे हैं। विपक्ष एक हो जाए तो न केवल भाजपा को सत्ता में आने से रोका जा सकता है, बल्कि उसका सफाया भी नामुमकिन नहीं। पर क्षेत्रीय दलों की एकता मेढ़क तौलने से भी जटिल कवायद ठहरी।
जनाधार की चिंता
पासवान को अब अपनी पार्टी की हालत सुधारने की चिंता है। पार्टी मजबूत होगी तभी तो वे भी मजबूत हो पाएंगे। दलितों को तो फिर से अपने पक्ष में एकजुट करना चाहते ही हैं, पर साथ-साथ अति पिछड़ों को भी जोड़ने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं। नीतीश सरकार को वे न दलितों की हितैषी मानने को तैयार हैं और न अति पिछड़ों की भलाई करने वाली। पासवान मान रहे हैं कि नीतीश दलितों के बीच ‘फूट डालो और जैसा चाहो वैसा हांको’ की नीति अपना रहे हैं। इसीलिए दलित नेता ने अपने करीबी अति पिछड़ों को भी समझाया है कि अपनी दुर्दशा पर वे चुप न रहें। दलितों और अति पिछड़ों के मुद्दों पर मुखरता दिखाएं। उनका बेटा चिराग भी यही चाहता है।
खिसियानी बिल्ली
योग गुरु बाबा रामदेव पछता रहे होंगे। कारोबार बेशक कई गुना बढ़ गया, पर सत्ता के गलियारों में तो धमक पहले से कम ही हुई है। तभी तो पद्म पुरस्कारों की सूची से नाम इस बार भी नदारद था। पिछले साल तो बाबा ने लॉबिंग भी खूब की थी। लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए कम जोखिम नहीं लिया था। अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। लेकिन मोदी की बंपर बहुमत वाली सरकार बन जाने के बाद तो बाबा का रुतबा बढ़ने के बजाए घट गया। पिछले साल सरकार ने उन्हें पद्म पुरस्कार देने की कोशिश की थी, पर राष्ट्रपति ने उनके खिलाफ कई जांचे लंबित होने का हवाला दे लाचारी जता दी थी। बाबा को पता चला तो प्रचार करा दिया कि उन्होंने खुद ही ठुकरा दिया पुरस्कार। यह बात अलग है कि इसके बाद गृह मंत्रालय ने सफाई दे बाबा की किरकिरी कर दी थी। कहा था कि रामदेव के नाम पर पुरस्कार की कोई सिफारिश सरकार ने राष्ट्रपति से की ही नहीं। पत्रकारों ने उपेक्षा से दुखी रामदेव को इस बार फिर छेड़ा। श्री श्री रविशंकर को पद्म पुरस्कार मिलने पर उनकी प्रतिक्रिया पूछी। बाबा तैश में आ गए। फरमाया कि वे किसी आभूषण-विभूषण की न अपेक्षा करते हैं और न उपेक्षा। पतंजलि तो देश को आगे बढ़ाने में और विदेशी कंपनियों से छुटकारा दिलाने में लगा है। देश ही नहीं दुनिया के हर स्टोर का नंबर वन ब्रांड बन जाएगा एक दो साल में पतंजलि। बाबा के मंसूबों के हिसाब से तो लोग अगर अब उन्हें योग गुरु की जगह बिजनेस गुरु कह रहे हैं तो इसमें गलत क्या है? हां, पुरस्कार न मिलने पर दिखाई झल्लाहट से बाबा ने साबित कर दिया कि बिल्ली खिसियानी हो तो खंभा ही नोचती है।
पर उपदेश
उत्तराखंड भाजपा के पदाधिकारियों की सूची क्या जारी हुई, पार्टी में तूफान सा आ गया। अजय भट्ट हैं सूबे में पार्टी के मुखिया। पर कार्यकारिणी उनकी खुद की बनाई नहीं लगती। तभी तो इसका खुलासा होते ही एक दूसरे की टांग खींच रहे हैं पार्टी के नेता। सूची में एक नाम ऐसे नेता का भी है जो बसपा और कांग्रेस के नेताओं के साथ जमीन के धंधे में जुड़ा है। बबलू श्रीवास्तव की कथित प्रेमिका से भी निकटता रही है हरिद्वार के इस होटल मालिक की। भगत सिंह कोश्यारी के चहेतों की भरमार है तो निशंक और खंडूड़ी गुट को पूरी तरह नकार दिया गया है। पदाधिकारियों की सूची पर विरोधी कांग्रेस तक ने नुक्ताचीनी कर डाली। मुख्यमंत्री हरीश रावत के मीडिया सलाहकार सुरेंद्र अग्रवाल ने पार्टी फंड में गबन के लिए चर्चित नेता का नाम देख खिल्ली उड़ाई। पर अग्रवाल भूल गए कि कांग्रेस की कार्यकारिणी में भी तो एक कुख्यात अपराधी की पत्नी का नाम होने पर कितनी लानत-मलानत की थी लोगों ने सूबेदार किशोर उपाध्याय की।
घोटाला प्रदेश
भ्रष्टाचार और मध्यप्रदेश जैसे एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं। मामूली क्लर्क और जूनियर इंजीनियर भी इस सूबे में करोड़पति-अरबपति यों ही नहीं बन जाते। घोटाला दर घोटाला बन चुका है सूबे की नियति। व्यापमं घोटाले की चिंगारी अभी धुंआ दे ही रही थी कि सूबे के बीमा अस्पतालों में चिकित्सा उपकरणों और दवा खरीद में अनियमितताओं का भांडा फूट गया। फूटना तो तय ही था क्योंकि अफसरों ने अपने कमीशन के लालच में दस से तीस गुना तक ज्यादा दाम जो चुका दिए। आपरेशन किट 35 हजार में कहीं से भी मिल जाती है, पर मध्यप्रदेश में खरीदी गई नौ लाख 98 हजार में। 48 हजार में मिलने वाली लेप्रो टामी किट के लिए पांच लाख दो हजार चुका दिए। पांच लाख 99 हजार में जो डीएनसी सेट खरीदा वह 18 हजार में मिल रहा है। घपला करना था तो वित्त विभाग के नियमों की परवाह क्यों करते? चमत्कार तो तब हो गया जब श्रम विभाग ने मांगे तीस करोड़, पर उसे चालू वित्तीय वर्ष के लिए सरकार ने थमा दिए 48 करोड़। जबकि पहले साल यह बजट महज 16 करोड़ था। आमतौर पर कोई विभाग जितना मांगता है, उतना कभी मिलता ही नहीं। दस-पांच फीसद की कटौती तो होती ही है। अब भंडाफोड़ हो गया तो जांच के दावे हो रहे हैं। गड़बड़ी की बात श्रम मंत्री को भी सार्वजनिक रूप से कबूलनी पड़ी है। वित्त विभाग ने पड़ताल कर दूध का दूध और पानी का पानी पहले ही कर दिया है तो फिर जांच के नाम पर लीपापोती के सिवा और क्या करना चाहेंगे श्रम मंत्री।
देर-अंधेर
हिमाचल आजकल पीलिया के प्रकोप से ग्रस्त है। शुरुआत राजधानी शिमला से हुई। पर अब बाकी जिले भी चपेट में आ चुके हैं। पुलिस ने सिंचाई और जन स्वास्थ्य विभाग के दो अफसरों को पकड़ा तो सीने में दर्द का बहाना बना वे अस्पताल में भर्ती हो गए। अदालत को इस तरकीब का पता चला तो जेल भेजा। एक ठेकेदार पर हाथ डाला तो कांग्रेस के विधायक अनिरुद्ध सिंह पैरवी करने पहले ही थाने में जा धमके। ठेकेदार को निशाना बनाने की शिकायत की तो मुख्यमंत्री की बैठक में हर कोई हैरान रह गया। आखिर मुख्यमंत्री ने ही लताड़ा कि एजंडे से बाहर नहीं जाएं। लोगों को हैरानी हुई कि पीलिया का सबसे ज्यादा प्रकोप भी इन्हीं विधायक के इलाके में है। फिर कैसे रोगियों के बजाए ठेकेदार से प्रेम उमड़ पड़ा विधायक का। रही विपक्ष की बात, तो उसे हर मामले में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का दोष नजर आता है। प्रेम कुमार धूमल ने उनके नेतृत्व को ही अक्षम बताने में देर नहीं लगाई। आखिरकार सरकार को पीलिया के मामले में सूबे में अलर्ट जारी करना पड़ा। पर खेत सूख जाने पर हुई बारिश जैसा साबित हुआ यह कदम।
पिंजरे का तोता
घोषित आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में अब तस्वीर उलटने लगी है। लगता है कि मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के खिलाफ कार्रवाई में सीबीआइ ने हड़बड़ी दिखाई। उनकी बेटी की शादी के मौके पर छापा डाल कर तो हद ही कर दी। हिमाचल हाई कोर्ट में पहले खुद ही कहा था कि उसे फिलहाल वीरभद्र सिंह की गिरफ्तारी की जरूरत नहीं है। हाई कोर्ट ने रोक लगा दी तो सुप्रीम कोर्ट जा पहुंची सीबीआइ। हाई कोर्ट के फैसले को ही अमान्य कर दिया। सो, सुप्रीम कोर्ट ने मामला दिल्ली हाई कोर्ट में स्थानांतरित कर सीबीआइ की संतुष्टि कर दी। यह बात अलग है कि हिमाचल हाई कोर्ट के अंतरिम आदेश से छेड़छाड़ अभी तक दिल्ली हाई कोर्ट ने भी करना जरूरी नहीं माना है। अब जरा सीबीआइ की कार्यशैली देखिए। पहले दावा किया था कि उसके पास वीरभद्र के खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं। अगर वाकई ऐसा था तो फिर अब शिमला में क्यों माथा-पच्ची कर रहे हैं सीबीआइ के अधिकारी। कभी बागवानों से पूछते हैं कि सेब से एक एकड़ में कितनी आमदनी हो सकती है तो कभी उद्यान विभाग के निदेशक से लिखित जवाब मांगते हैं। चुनाव आयोग के दफ्तर से भी पुराने शपथ पत्रों को खंगाल रहे हैं। यदि यह कवायद भी पहले से नहीं की थी तो फिर मुख्यमंत्री के घर छापे की जल्दी क्या थी? सबूत के अभाव में की गई कार्रवाई तो अंधेरे में हाथ-पांव मारने वाली बात कही जाएगी।