राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने न्यायाधीशों को ‘न्यायिक सक्रियता’ के जोखिमों के प्रति सचेत करते हुए शनिवार कहा कि अधिकारों का उपयोग करते हुए हर समय सामंजस्य स्थापित करना चाहिए और ऐसी स्थिति सामने आने पर आत्मसंयम का परिचय देना चाहिए। संविधान को सर्वोच्च बताते हुए प्रणब ने कहा कि हमारे लोकतंत्र के हर अंग को अपने दायरे में रहकर काम करना चाहिए और जो काम दूसरों के लिए निर्धारित है, उसे अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘न्यायिक सक्रियता को अधिकारों के बंटवारे को कमतर करने की ओर अग्रसर नहीं होना चाहिए क्योंकि अधिकारों का बंटवारा संवैधानिक योजना है। संविधान के तहत शासन के तीनों अंगों के बीच सत्ता का संतुलन संविधान में निहित है।’

राष्ट्रपति ने कहा कि अधिकारों का उपयोग करते हुए हर समय सामंजस्य बनाए रखना चाहिए। साथ ही कहा कि विधायिका और कार्यपालिका की ओर से अधिकारों का उपयोग न्यायिक समीक्षा का विषय है। राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी में एक समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि अधिकारों का उपयोग करते समय न्यापालिका द्वारा आत्म संयम और स्व अनुशासन एकमात्र संभव नियंत्रण है।

राष्ट्रपति ने हालांकि कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अखंडता का न केवल न्यायाधीशों के लिए बल्कि सामान्य लोगों के लिए महत्व है। उन्होंने कहा, ‘हमारे संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका की बात कही गई है, विशेष तौर पर शीर्ष अदालत के बारे में।’ उन्होंने कहा कि इसमें विधायिका और कार्यपालिका के कार्यो की समीक्षा की बात भी है।

प्रणब मुखर्जी ने कहा, ‘न्यायिक समीक्षा बुनियादी ढांचे का हिस्सा है और कानून की प्रक्रिया के आधार पर भी इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता। न्यापालिका न्यायिक समीक्षा के प्रभावकारी होने को सुनिश्चित करता है।’ उन्होंने भारत जैसे विकासशील देश में न्याय के आयामों को व्यापक बनाने में न्यायपालिका की भूमिका की सराहना की।

राष्ट्रपति ने कहा कि हमारे जैसे विकासशील देशों में न्याय के आयामों को व्यापक बनाने में हमारी न्यायपालिका की बड़ी भूमिका है। बुनियादी अधिकारों को लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जरिये न्यायिक नवोन्मेष और सक्रियता ने कानून के सामान्य सिद्धांतों के महत्व का विस्तार किया है। उन्होंने कहा कि यह तब संभव हुआ है, जब अदालत प्रत्येक व्यक्ति के हितों का हर संभव ध्यान रखती है।

उन्होंने कहा कि अधिकारों के समर्थन में अदालत एक नागरिक का लिखा पोस्टकार्ड या समाचारपत्र में छपे लेख को न्यायिक कार्रवाई के लिए पर्याप्त मानती है। इससे सामान्य लोगों को न्याय प्राप्त करने में मदद मिलती है। राष्ट्रपति ने कहा कि न्यायपालिका हमारे लोकतंत्र के तीन महत्वपूर्ण स्तम्भों में से एक है और संविधान एवं कानूनों की अंतिम व्याख्या करती है।

प्रणब ने कहा कि यह कानून के गलत पक्ष में रहने वालों से प्रभावी एवं तेजी से निपटते हुए सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने में मदद करती है। कानून के शासन को बनाए रखने वालों और स्वतंत्रता के अनुपालक के रूप में न्यायपालिका की भूमिका पवित्र है। उन्होंने कहा, ‘न्यायपालिका में लोगों का विश्वास और भरोसा हमेशा बनाये रखने की जरूरत है। लोगों के लिए न्याय का मतलब यह हो कि इसे त्वरित, वहनीय और पहुंच के दायरे में होना चाहिए।’

सुप्रीम कोर्ट का जिक्र करते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि शीर्ष अदालत ने समकालीन स्थितियों और देश के समक्ष मौजूदा चुनौतियों के संदर्भ में सुशासन की व्याख्या करते हुए भारत के विकसित होते हुए समाज की भावना को समझा है।

उन्होंने कहा कि यह महज कानूनों या कानूनी व्यवस्था की व्याख्या नहीं है बल्कि औपनिवेशिक झटकों से उबरते हुए हमारे विकासशील समाज की भावना का परिचायक है। प्रणब ने कहा कि संविधान हमारा जीवंत दस्तावेज है और केवल पत्थर पर उत्कीर्ण नहीं है। यह सामाजिक आर्थिक बदलाव का मैग्नाकार्टा है। यह गरीब से गरीब व्यक्ति के लिए न्याय सुनिश्चित करता है।