ओमप्रकाश ठाकुर

इस साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले नगर निगम शिमला के चुनाव भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए चुनौती से कम नहीं है। नगर निगम शिमला का कार्यकाल 18 जून को समाप्त हो गया है। वहां अब न महापौर है और न ही कोई चुने हुए पार्षद हैं। नगर निगम पर अभी तक सरकार ने कोई प्रशासक नहीं बिठाया है। निगमायुक्त ही सब काम देख रहे हैं। उधर, यह चुनाव कब होने हैं, जयराम सरकार की ओर से संकेत नहीं दिए गए हैं।

विधानसभा चुनावों से पहले शिमला नगर निगम के चुनावों को सेमी फाइनल के तौर पर देखा जाता है। यहां की हार-जीत का राजनीतिक दलों पर एक मनौवैज्ञानिक दबाव तो होता ही। पिछली बार नगर निगम पर कांग्रेस के बागी की मदद से भाजपा ने पहली बार कब्जा जमाया था। ऐसे में नगर निगम व प्रदेश में दोनों जगहों पर भाजपा का कब्जा हो गया था। बावजूद इसके समय पर चुनाव न कराने से डर जाना जयराम सरकार और भाजपा के लिए असहज स्थिति है। हालांकि भाजपा ने प्रदेश में मिशन रिपीट का डंका बजाया हुआ है लेकिन जिस तरह से नगर निगम में वार्डों का फिर से सीमांकन कराया गया व वार्डों की सीमाओं से हेर फेर किया गया, उससे साफ हैं कि भाजपा को पता चल चुका था कि मौजूदा स्थिति में उसे मनमाफिक नतीजे शायद ही मिले।

फिर से सीमांकन में दिखाई गई कारगुजारियों को लेकर प्रदेश उच्च न्यायालय ने सरकार को आईना दिखा दिया और सरकार की मंशाओं पर पानी फेर दिया। इससे सरकार को बड़ा झटका लग गया। यही नहीं शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज जो शिमला से विधायक भी हैं, ने शहर में निर्माण को लेकर शिमला विकास योजना के मसौदे को मंत्रिमंडल से पारित करवा कर एक बड़ा चुनावी मुद्दा अपने पक्ष में करने का दांव चला था। इस मसौदे में राष्ट्रीय हरित पंचाट के 2017 के शहर में निर्माण से जुड़े फैसले में दिए गए तमाम दिशा निर्देर्शों के उल्टे प्रावधान कर दिए। मामला पंचाट में गया और पंचाट ने हिदायत दी कि सरकार इस मामले में एक कदम भी आगे न बढ़े। भाजपा के हाथ से एक बड़ा चुनावी मुद्दा निकल गया।

शहर में हजारों की तादाद में अनाधिकृत भवन हैं। पूर्व की कांग्रेस सरकार इन भवनों को नियमित करने के लिए अधिनियम लाई थी, जिसे अदालत ने निरस्त कर दिया था। सत्ता में आने पर जयराम सरकार ने अदालत के इस फैसले के खिलाफ हाइर् कोर्ट की खंडपीठ में समीक्षा याचिका दायर की थी। सरकार च भाजपा को उम्मीद थी कि फैसला पक्ष में आएगा, लेकिन बीते दिनों उच्च न्यायालय ने सरकार की यह याचिका भी खारिज कर दी।

भाजपा व सरकार के हाथ से यह दूसरा बड़ा मुददा भी निकल चुका है। यही नहीं नगर निगम चुनावों को मद्देनजर बजट सत्र में सरकार ने अवैध बस्तियों को नियमित करने को लेकर एक कानून सदन से पारित करवाया था। राजधानी में बहुत सी बस्तियां हैं जिनमें बड़ा वोट बैंक है व इसको साधने के लिए ही इस कानून को लाया गया था। लेकिन यह कानून भी जमीन पर नहीं उतर पाया है।

यह कानून वन विभाग की जमीन पर लागू नहीं हो सकता हैं। राजधानी क्या प्रदेश में अधिकांश जगहों पर वन विभाग की जमीन पर ही ऐसी बस्तियां बसी हुई हैं। ऐसे में इस कानून का चुनावी लाभ भी फिलहाल भाजपा व जयराम सरकार को मिलता नजर नहीं आ रहा है। ये वे बड़े व दमदार मसले थे जो भाजपा को नगर निगम पर दोबारा काबिज कराने में मददगार हो सकते थे लेकिन ये सब एक-एक करके सरकार व भाजपा के हाथ से फिसल चुके हैं।