छत्तीसगढ़ में सत्ताधारी भाजपा को स्थानीय चुनावों में करारा झटका लगा है। गुरूवार को आए नतीजों के मुताबिक 11 शहरी निकायों में से आठ सीटें कांग्रेस ने जीती हैं। एक नगर निगम, चार नगर परिषदों और छह नगर पंचायतों के लिए सोमवार को वोट डाले गए थे। इन 11 निकायों पर हुए पिछले चुनावों में बीजेपी ने सात जबकि कांग्रेस ने बाकी सीटें जीती थीं। बता दें कि एक दिन पहले बुधवार को बेंगलुरु से भी भाजपा के लिए अच्छी खबर नहीं आई थी। वहां विधान परिषद के चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा से दोगुनी सीटें जीती थीं।
बीजेपी को सबसे तगड़ा झटका भिलाई नगर निगम सीट पर लगा। यहां बीजेपी ने सीनियर लीडर और वैशाली नगर से एमएलए विद्या रतन भसीन को चुनाव लड़ाया था। उनके खिलाफ कांग्रेस ने युवा चेहरे देवेंद्र यादव को मौका दिया था। देवेंद्र ने बीजेपी प्रत्याशी को 9 हजार से ज्यादा वोटों से हराया। कांग्रेस ने चारों नगर परिषदों राजनंदगांव जिले का खैरागढ़, कोरिया जिले का बैकुंठपुर और शिवपुर चर्चा और दुर्ग के जामुल पर कब्जा जमाया। जहां तक नगर पंचायतों का सवाल है, यहां बीजेपी और कांग्रेस के बीच कांटे का मुकाबला हुआ। बीजेपी ने बीजापुर के बैरमगढ़, कांकेर के नरहरपुर और सूरजपूर के प्रेमनगर सीट पर कब्जा जमाया। वहीं, कांग्रेस ने बेमतारा की मारो, सुकमा की कुंटा और बीजापुर की भोपालापटनम सीट जीती।
जीत पर कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा, ”ये नतीजे जाहिर करते हैं कि जनता ने राज्य सरकार और सत्ताधारी पार्टी को खारिज कर दिया है। यह लोगों की जीत है, जिन्होंने बीजेपी की नीतियों को खारिज कर दिया है। इससे साबित होता है कि कांग्रेस को भविष्य में और बड़ी कामयाबी मिलने वाली है।” बीजेपी ने अपनी हार का कारण पार्टी के अंदर की अनुशासनहीनता को बताया है। पार्टी के मुताबिक बीजेपी के विद्रोही नेताओं ने पार्टी के खिलाफ काम किया।
2015 में भाजपा के चुनावी प्रदर्शन पर सीमा चिश्ती का विश्लेषण पढ़िए:
2014 में भाजपा को लगभग हर स्तर पर एकतरफा चुनावी जीत मिली थी, लेकिन 2015 में ऐसा नहीं हुआ। दिल्ली और बिहार में हुए विधानसभा चुनाव, राजस्थान और यूपी में हुए स्थानीय चुनाव, मध्य प्रदेश में हुआ लोकसभा का उप चुनाव और हाल ही में गुजरात में हुए निकाय चुनाव में सत्ताधारी पार्टी को बुरे नतीजों का सामना करना पड़ा। गौर करने लायक बात यह है कि ये वही राज्य हैं, जहां बीजेपी ने आम चुनाव में शानदार प्रदर्शन किया था। बीजेपी को मिली कुल सीटों में 26 फीसदी भागेदारी यूपी की है जबकि 11 पर्सेंट सीटें बिहार से मिलीं। वहीं, गुजरात और राजस्थान में तो बीजेपी ने विपक्षी कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ कर दिया। केंद्र सरकार के लिए यह कहना बेहद आसान है कि इनमें से अधिकतर चुनाव ‘स्थानीय’ थे। वे यही कहेंगे कि इनके नतीजों को केंद्र सरकार के घटते प्रभाव के प्रतिबिंब के तौर पर न देखा जाए। हालांकि, बीजेपी के लिए तो यह चिंता की बात जरूर है कि लोकसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत हासिल करने के बाद उसे इतनी जल्दी जल्दी झटके क्यों लग रहे हैं। इनके नतीजे बीजेपी के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के वादे के खिलाफ जाते दिखते हैं।
2015 के नतीजों को लेकर कुछ बिंदुओं पर नजर डालते हैं: पहली, बीजेपी आलाकमान की ओर से इन चुनावों के लिए जो मशीनरी धरातल पर उतारी गई, वो पूरी तरह से केंद्रीकृत था। आलाकमान की सीधी नजर तो इस पर थी ही, साथ में इस पर पीएम नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगी अमित शाह के स्टाइल की पूरी छाप थी। इसी के बलबूते 2014 के आखिर तक शानदार जीत मिली। बीजेपी का चुनाव जीतने का एक ऐसा मैकेनिज्म सामने आया, जिसमें भारी पैमाने पर तकनीक का इस्तेमाल, आरएसएस के कार्यकर्ता, बार बार दो तिहाई बहुमत पाने के दावे, विपक्ष को पूरी तरह खारिज करने की रणनीति के अलावा भारी पैमाने पर संसाधनों का इस्तेमाल आदि शामिल था। हालांकि, बीजेपी का यह पूरा सिस्टम 2015 के किसी भी चुनाव में काम करता नजर नहीं आया।
दूसरी बात। ऐसी कोशिशें की गईं, मानों शासन और संसद चलाने की जिम्मेदारी विपक्ष की है।
तीसरी बात। दादरी में हुई घटना के अलावा गोवध विरोधी अभियान जनता के मूड से ठीक उलट निकलीं। सत्ताधारी पार्टी के सदस्यों, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों की ओर से खुद को ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ के तौर पर प्रोजेक्ट करने के लिए विवादास्पद बयान देने की घटनाओं ने समाज के एक बड़े हिस्से की चिंताएं बढ़ा दीं। ‘हिंदू प्लस विकास’ का मैसेज लोकसभा चुनावों में हिंदी भाषी इलाकों में कामयाब रहा। हालांकि, उग्र हिंदुत्व की वजह से पैदा हुई सांप्रदायिक अस्थिरता ने विदेशी निवेशकों के एक बड़े धड़े और रेटिंग एजेंट की चिंताएं बढ़ा दीं। उन वोटरों की भी, जिन्होंने यह सोचा था कि उन्होंने विकास के लिए वोट डाला है, आरएसएस के लिए नहीं। हालांकि, इन सभी चुनाव नतीजों खासकर कि गुजरात निकाय चुनाव से जो बड़ा संदेश मिला वो ये कि महंगाई, किसानों की मुश्किलें, नौकरी जैसे जमीनी मुद्दों की वजह से वोटर सरकार से नाराज हैं।
बीजेपी ने गुजरात के शहरी इलाकों में अच्छा प्रदर्शन किया। यहां वोटरों की तादाद 96 लाख जबकि वोटिंग पर्सेंटेज 47 फीसदी है। राज्य के ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में जहां वोटरों की तादाद कहीं ज्यादा (2 करोड़ से अधिक) है, वहां वोटिंग पर्सेंटेज 67 फीसदी रहा और इन लोगों बीजेपी को नकार दिया। खाने पीने की चीजों की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं, जबकि इसे पैदा करने वाले किसान अभी भी दिक्कत में हैं। खाने पीने की चीजों की बढ़ती महंगाई से उसे कोई लाभ नहीं हो रहा। मौसम के खराब हाल और केंद्र सरकार की ओर से समुचित कदम न उठाने की वजह से देश के कुल 640 में से 302 जिलों में सूखे जैसे हालात हैं।
इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट ऐसा कहती है। इसके अलावा, जमीन अधिग्रहण बिल में बीजेपी की ओर से किए गए बदलाव और बाद में विपक्ष के विरोध के बाद कदम पीछे खींचने से यही मैसेज गया कि सरकार को ग्रामीण भारत के जमीनी हकीकत के बारे में कोई अंदाजा नहीं है। निजी उद्योगों को बढ़ावा देना और उनके बल पर नौकरी और संपन्नता देने के वादे से जुड़ा जादुई ‘गुजरात मॉडल’ लड़खड़ाता नजर आ रहा है। इस साल हुए पटेल आंदोलन की वजह से बीजेपी ने बिहार चुनाव प्रचार के दौरान ही गुजरात मॉडल को बेचना बंद कर दिया। राजद्रोह के आरोप में जेल में बंद हार्दिक पटेल ने धमकी दी थी कि वे बिहार और झारखंड जाकर गुजरात के आर्थिक हालात से जुड़े स्याह पक्ष लोगों के सामने रखेंगे। इसके बाद, आरक्षण की नीतियों को लेकर कुछ बातें हुईं। 2015 एक ऐसा साल है जो सभी पक्षों को इन चुनावी नतीजों पर गौर करने और आने वाले साल के लिए तैयारी करने का मौका देता है। 2016 भी कम रोमांचक नहीं होगा।