मनोज मिश्र
नई दिल्ली। दिल्ली में अब तक सरकार बनाने में असफल रही भाजपा के सामने अपना वोट बैंक बढ़ाने की चुनौती है। सालों बाद इस लोकसभा चुनाव में भाजपा को 46 फीसद वोट मिले। इससे उसने सभी सातों सीटों पर कब्जा जमाया। दिल्ली में वोट बढ़ने में बड़ी भूमिका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मानी जा रही है। अन्यथा सालों से भाजपा का आंकड़ा 37 फीसद को पार नहीं कर पा रहा था। इतने ही वोट लाकर और गैर भाजपा वोटों के बंटने से वह लगातार दो बार नगर निगम के चुनाव भी जीत गई। विधानसभा चुनाव अलग मुद्दों पर लड़े जाएंगे, मोदी का लाभ एक सीमा से ज्यादा नहीं होने वाला है। ऐसे में भाजपा के सामने वोट बढ़ाने वाले नेताओं को आगे करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है।
अब दिल्ली बदल चुकी है। परिसीमन के बाद दिल्ली की 70 में से 50 सीटें ऐसी हो गई हैं, जहां पूर्वांचल के प्रवासी (बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश आदि) 20 फीसद से 60 फीसद तक हैं। भाजपा अपने परंपरागत पंजाबी और वैश्य नेतृत्व से आगे सोचने को तैयार नहीं है। अब तो पंजाबी बिरादरी के नेता भी वैश्य नेताओं को ज्यादा महत्व देने से नाराज माने जा रहे हैं। प्रवासियों के नेता के रूप में दिल्ली के प्रभारी प्रभात झा और मनोज तिवारी जैसों को आगे करने की बजाए किसी अनजान नेता को विधानसभा का टिकट दे दिया जाता है, तो किसी लो प्रोफाइल नेता को जिले की राजनीति से उठाकर सीधे प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा दिया जाता है। इसके अलावा गैर भाजपा वोटों को भाजपा ला सकने की क्षमता वाले रामवीर सिंह बिधूड़ी के साथ-साथ विभिन्न कारणों से घर बैठे नेताओं को ज्यादा महत्व देना पड़ेगा। अब शायद ही भाजपा केंद्रीय मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन को फिर से मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाए। अब उसे विजय गोयल, विजेंद्र गुप्त, जगदीश मुखी के साथ-साथ मई में जीते अन्य सांसदों को भी आगे करना होगा।
कितने भी प्रयास कर लिए जाएं इस महीने के अंत तक या तो तीन विधानसभा सीटों पर उपचुनाव या विधानसभा भंग करने की घोषणा करनी ही पड़ेगी। विधानसभा भंग करने के छह महीने के भीतर विधानसभा चुनाव कराने जरूरी हैं।
दिल्ली में 1993 में विधानसभा बनने के बाद पांच विधानसभा चुनाव हुए हैं। पहले चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के अलावा जनता दल (जद) मजबूती से चुनाव लडे थे। जद को दिल्ली के अल्पसंख्यकों ने एकतरफा वोट दिया था। उसे 18 फीसद से ज्यादा वोट और चार सीटें मिली थीं। अभी भाजपा के विधायक बिधूड़ी तब जद के नेता थे। उनके अलावा चुनाव जीते बाकी तीनों जद विधायक न केवल अल्पसंख्यक थे बल्कि वे अल्पसंख्यक बहुल इलाकों से जीते थे। बाद में शोएब इकबाल के अलावा मतीन अहमद और परवेज हाशमी कांग्रेस में शामिल हो गए। लेकिन जद की दिल्ली की आधी सीटों पर अच्छी मौजूदगी के चलते भाजपा चुनाव जीत गई। उसे करीब 43 फीसद वोट मिले थे। उसके बाद लगातार तीन चुनावों में भाजपा और कांग्रेस में सीधा मुकाबला हुआ। लेकिन भाजपा को कभी भी 37 फीसद से अधिक वोट नहीं मिले।
कांग्रेस को 1998 में 47.76, 2003 में 48.13 और 2008 में 39.88 फीसद वोट मिले और उसने सरकार बनाई। वहीं 2013 के विधानसभा चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भाजपा को केवल 33.10 फीसद वोट ही मिले। इतने वोट पर तो किसी भी दल को बहुमत मिल ही नहीं सकता है। लेकिन आप को 29 फीसद वोट और कांग्रेस को 24.50 फीसद वोट आने से भाजपा बहुमत से महज चार सीटें दूर रह गई। आप ने न केवल कांग्रेस के मुख्य वोट बैंक को हथियाया बल्कि भाजपा के वोट कहे जाने वाले मध्य वर्ग में भी उसने सेंध लगाई। आप ने कांग्रेस को विधानसभा चुनाव से भी बड़ा झटका लोकसभा चुनाव में दिया। भले ही उसे कोई सीट नहीं मिली लेकिन उसके वोट में तीन फीसद का इजाफा हुआ। लोकसभा चुनाव में तो आप को अधिकांश मुसलिम वोट मिले, जिनके बूते कांग्रेस को विधानसभा में आठ सीटें मिली थीं। इसलिए कांग्रेस का वोट फीसद घटकर 15 फीसद ही रह गया था। बिसपा को 2008 के विधानसभा चुनाव में 14.50 फीसद वोट मिले थे। लेकिन पिछले कई चुनाव में उसका वोट फीसद 10 के आसपास रहा है, जो 2013 के विधानसभा चुनाव में घटकर साढे चार फीसद ही रह गया। माना गया कि आप को मिले वोटों में करीब 16 फीसद वोट हर चुनाव में कांग्रेस को मिलने वाले वोट थे तो करीब पांच से आठ फीसद बसपा के गैर जाटव वोट और भाजपा को मिलने वाले करीब छह फीसद मध्य वर्गीय युवा वोट थे।
दिल्ली में 10-15 फीसद ऐसे लोग हैं, जो शुरू से ही कांग्रेस और भाजपा को वोट नहीं देते हैं। उनका वोट कभी जनता दल तो कभी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) तो कभी अलग-अलग उम्मीदवारों को मिलता रहा है। विधानसभा और लोकसभा चुनाव में आप ने इन मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में सफल रही। दिल्ली में जो भी दल भाजपा को टक्कर देता दिखेगा उसके साथ अल्पसंख्यक मतदाता अपने आप जुड़ जाएंगे। यह बात लोकसभा चुनाव में साफ हो गई है। वहीं पिछले साल दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव के बाद एक वर्ग ऐसा भी सामने आया है, जिसे लगता है कि आप को सरकार चलाने का एक और मौका दिया जाना चाहिए। दिल्ली में चुनाव जब भी हों, अगर कांग्रेस मजबूत नहीं हुई और आप की सक्रियता अबसे ज्यादा रही तो भाजपा के लिए चुनाव जीतना कठिन हो जाएगा। चुनाव टालने से आप अगर कमजोर होती गई तो भाजपा की जीत आसान होगी। कांग्रेस के वोट उसके पास लौटने लगेंगे, जैसा कि दावा किया जा रहा है। यह भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए अनुकूल है। लेकिन चुनाव जितने भी देरी से कराए जाएं आप को हाशिए पर देखना नादानी होगी। अगर उसे लोकसभा चुनाव जितने ही वोट मिले तो भी वह भाजपा को तब तक नहीं जीतने देगी जब तक भाजपा अपना वोट बैंक नहीं बढ़ाती है।