पशोपेश में पार्टी
राजनीति भी अजीब होती है, यहां कोई किसी का सगा नहीं होता। दिल्ली कांग्रेस के जिन नेताओं ने चौधरी प्रेम सिंह को हटाकर 1998 में शीला दीक्षित को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया, उन्हीं को 2003 में दोबारा प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए और शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद से हटवाने के लिए वही नेता सक्रिय हुए। ठीक यही प्रकरण अब दिल्ली भाजपा में दोहराया जा रहा है। जिन लोगों ने सतीश उपाध्याय को हटवाकर मनोज तिवारी को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनवाया, वही अब उन्हें हटवाने के लिए सक्रिय हो गए हैं। मनोज तिवारी के अध्यक्ष काल में भाजपा ने दिल्ली नगर निगम चुनाव जीता, लेकिन बवाना विधानसभा उपचुनाव हार गई। मनोज तिवारी के विरोधियों ने बवाना की हार का ठीकरा उनके सिर फोड़ा, जबकि यहां हार के और भी कई कारण रहे। अब पार्टी आलाकमान की मुसीबत यह है कि देश भर में भाजपा के लिए उपयोगी मान लिए गए मनोज तिवारी को हटाए या न हटाए और इन सब मुद्दों को लेकर पार्टी में मची गुटबाजी के बीच अगले विधानसभा चुनाव की तैयारी कैसे करे। जाहिर है ऐसे में प्रदेश अध्यक्ष क्रिकेट मैच न खेलें तो क्या करें।
अदालत का झटका
टू जी घोटाले पर सीबीआइ की विशेष अदालत का फैसला आते ही कई नेताओं और पार्टियों की रातों की नींद उड़ गई। इसी में से एक हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, जिनकी पूरी राजनीति ही भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई थी, उसमें भी 2-जी मामला सबसे खासमखास था। अब अदालत के फैसले के बाद तो इस मामले की उसी तरह हवा निकलती दिख रही है जैसे कुछ साल पहले हवाला मामले की निकली थी। इस फैसले से कांग्रेस को अन्नाद्रमुक से ज्यादा राहत मिली क्योंकि दिल्ली और देशभर में उसे ज्यादा लोग जानते हैं। केजरीवाल की पार्टी वैसे ही बार-बार झटका खा रही है, कभी चुनाव हार रही है तो कभी उस पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। अब 2-जी पर आए अदालती फैसले ने केजरीवाल की धार पहले से और भी कमजोर कर दी है।
अंगूर खट्टे हैं
दिल्ली से राज्यसभा की तीन सीटों के लिए चुनाव का एलान होने के बाद पार्टी के उन नेताओं के मन में लड्डू फूटने लगे हैं, जिन्होंने लंबे समय से संसद पहुंचने का सपना संजो रखा है। इन नेताओं की हालत यह है कि ये खुलकर अपने मन की बात बता नहीं सकते, लेकिन यह भी चाहते हैं कि किसी तरह इनका नाम चर्चा में आ जाए और उस पर मुहर भी लग जाए। उधर, पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल खुद ही सियासत के तेज-तर्रार खिलाड़ी हैं। वे अपने मन की थाह किसी को पता नहीं लगने दे रहे। वे किसे राज्यसभा भेजना चाहते हैं, यह बात उनके अलावा शायद ही किसी को पता हो। अपने साथी नेताओं से मुलाकात और बातचीत में भी उन्होंने इस मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं की। यह बात संसद जाने की चाह रखने वाले नेताओं को और नागवार गुजर रही है। लेकिन उनकी मुश्किल यह है कि वे कुछ बोल भी नहीं सकते। ऐसे ही एक नेता को पिछले दिनों टटोला गया। पहले तो उन्होंने सिरे से इस बात को खारिज कर दिया कि उनका राज्यसभा जाने का कोई इरादा है। लेकिन जब वे खुले तो खुलकर बोले। उन्होंने कहा कि पहले तो मुझे लोग दिल्ली का मंत्री बना रहे थे, फिर पंजाब का मंत्री बना रहे थे। अब राज्यसभा भेजने की अफवाह उड़ाई जा रही है जबकि सबको मालूम है कि ऐसा कुछ नहीं होना है। इसीलिए बेहतर यही है कि इस बारे में चुप रहा जाए।
बदलना पड़ा फैसला
दिल्ली स्थित एक केंद्रीय विश्वविद्यालय ने पाठ्यक्रम विवरणिका में जिन शर्तों का जिक्र किया था, प्रवेश परीक्षा आते-आते विश्वविद्यालय उससे मुकरने लगा। इसकी सूचना जब विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों और शिक्षकों को लगी तो उन्होंने इसका जमकर विरोध किया। इस पर भी विश्वविद्यालय नहीं माना तो कुछ छात्र मामले को लेकर अदालत पहुंच गए। विश्वविद्यालय प्रशासन को लगा कि अब खेल गड़बड़ हो गया है तो उसने तुरंत अपने फैसले में बदलाव करते हुए पाठ्यक्रम विवरणिका में लिखी शर्तों पर ही दाखिला देने का एलान विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर कर दिया। यानी विश्वविद्यालय के साथ ‘लौट के बुद्धू घर को आए’ वाली कहावत चरितार्थ हुई।
बाबाओं की आफत
रोहिणी के आध्यात्मिक विश्वविद्यालय के कथित बाबा का पर्दाफाश होने का सबसे ज्यादा नुकसान मंदिरों के आसपास व गली-कूचों में दुकान चला रहे झोलाछाप बाबाओं को हो रहा है। उनकी दुकानदारी मानो बंद सी हो गई है। बीते दिनों बदरपुर रूट की मेट्रो में चढ़े एक युवक की आपबीती पर बेदिल चौंका। वह युवक कालकाजी मंदिर के सामने ‘बुरी आत्माओं से छुटकारा दिलाने’ का दावा करने वाले मोर पंख धारी बाबा के फुटपाथ पर बने ठिकाने से लौटते हुए बाबा को कोस रहा था। पीड़ित युवक लगातर कुछ बुदबुदा रहा था, बगल में बैठे सहयात्री ने वजह पूछी तो वह बिफर पड़ा। दरअसल बाबा ने शनि का प्रकोप मिटाने के लिए उसे शनिवार को अपने ठिकाने पर बुलाया, लेकिन फिर गायब हो गया। एक तो मेट्रो का महंगा किराया पीड़ित को खल रहा था, दूसरा बाबा ने फोन पर हिदायत दे दी कि जब तक रोहिणी ‘मामला’ शांत न हो तब तक न पधारें। बस फिर क्या था? मेट्रो बाबाओं के कारनामों पर बौद्धिक बहस होने लगी। कोई पीड़ित युवक को दिलासा देने लगा तो कोई 21वीं सदी का हवाला देकर ढोंगी बाबाओं को कोसने लगा। इस बीच बहस में दूसरे यात्रियों का यह फायदा हुआ कि सफर में उनका मनोरंजन हो गया और पता ही नहीं चला कि कब मेट्रो मंडी हाउस स्टेशन पर आकर खड़ी हो गई।
-बेदिल