सुमन केशव सिंह
राजधानी की तिब्बत कॉलोनी में सुनाई देता संगीत, गर्म कपड़ों और तिब्बती सामान से सजी दुकानें, संकरी मगर जगमगाती गलियों में इक्का-दुक्का बौद्ध भिक्षुओं के अलावा आधुनिक जिंदगी के रंग में रंगे युवा नजर आते हैं। इन्हें देख कर ऐसा नहीं लगता इन गलियों में रहने वालों के दिलों में कहीं कोई दर्द भी छिपा होगा।
इस साल एक अप्रैल को तिब्बती अपने निर्वासन के 60वें साल में प्रवेश कर जाएंगे। 31 मार्च 1959 वह तारीख है जब चीन की साम्यवादी सरकार ने बौद्ध भिक्षुकों के देश तिब्बत पर सैन्य कब्जा कर लिया था। इसके बाद दलाई लामा आठ हजार सैनिकों और 80 हजार तिब्बतियों के साथ निर्वासित होकर भारत पहुंचे थे। निर्वासन के 60 साल के दौरान इन तिब्बतियों की तीन पीढ़ियां जवान हो चुकीं हैं। क्या इस अवधि में इन तीन पीढ़ियों की सोच में तिब्बत को लेकर क्या कोई फर्क आया है? दिल्ली में रह रही 60 और 40 साल तक की पीढ़ी में अपनी मिट्टी को फिर से पाने का जज्बा दिखाई देता है मगर नई पीढ़ी के मन में तिब्बत की तस्वीर अब धुंधली नजर आती है…
याद है मुझे मेरा तिब्बत
वांग्दू नोर्वा की उमर भले ही 72 साल हो लेकिन उनमें तिब्बत को आजाद कराने का जो जज्बा है वह किसी नौजवान से कम नहीं। नोर्वा 17 साल की उम्र में तिब्बत की आजादी के लिए स्वयंसेवी सेना में शामिल हुए थे। उन्होंने बताया कि अमेरिका और चीन के रिश्तों में सुधार आने पर स्वयंसेवा सेना को भंग कर दिया गया। उन्होंने भारत की ओर से कई लड़ाइयों में हिस्सा भी लिया, इस उम्मीद के साथ की भारत तिब्बत के लिए चीन के खिलाफ खड़ा होगा। नोर्वा ने भारत-चीन युद्ध 1962 में भी चीन के खिलाफ जंग लड़ी। उन्होंने बताया कि भारत की हार के बाद चीन का मनोबल बढ़ा और साम्यवादी सरकार ने उनके देश पर बड़े पैमाने पर दमन चक्र चलाया। तिब्बत में 6000 से ज्यादा बौद्ध धर्म स्थल तोड़े गए। बौद्ध भिक्षुकों को बंदी बनाया गया। वहां आज भी लामा की तस्वीर रखना और छूना प्रतिबंधित है, ऐसा करने पर गिरफ्तारी हो सकती है। वांग्दू ने कहा, मुझे मेरा गांव.. मेरा देश, मेरा तिब्बत… वहां के पहाड़ हैं.. वहां की साफ हवा, खेती-किसानी सब कुछ याद है। पर अब पता नहीं कि जो याद में है, वह हकीकत में कैसा है। उन्होंने बताया कि वहां उनके भाई रहते हैं। 17 साल से उनकी बातचीत नहीं हुई है। वांग्दू अंतिम बार 1985 में तिब्बत गए थे।
क्यों दुनिया नहीं देती ध्यान?
कर्मा फुनशुक भारत में पैदा हुए हैं, लेकिन अपने देश वापस जाना चाहते हैं। उनके मां-बाप चीन का अत्याचार झेलकर तिब्बत से दलाई लामा के साथ आए यहां थे। फुनशुक कहते हैं कि यहां न खेती है न जमीन। हम मूल रूप से किसान हैं। लेकिन दुनिया हमारी ओर ध्यान नहीं देती है। तिब्बतियों को अपने देश जाने के लिए चीन की सरकार से वीजा लेना होता है। कर्मा 35 साल के हैं।
खुद की पहचान से दूर नई पीढ़ी
24 साल के तेनजिंग सोनम तिब्बती मूल के हैं लेकिन उन्होंने उनकी पहचान पूछने पर खुद को भारतीय बताया। उन्होंने कहा मैं यहीं पैदा हुआ हूं और देहरादून में रहकर पढ़ा हूं। सोनम जैसे कई युवाओं से तिब्बत के निर्वासन पर बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने न तो इसमें दिलचस्पी दिखाई और न उन्हें उस घटनाक्रम की कोई खास जानकारी है। 20 से 24 साल के युवाओं का कहना है कि उनके अभिभावकों ने भी उस त्रासदी के बारे में कुछ नहीं बताया जिनकी वजह से 80 हजार से ज्यादा तिब्बती अपना देश छोड़कर भारत आए।
वीजा नहीं देती चीनी सरकार
47 साल के ताशी चोसपेल बताया कि उनके परिवार के कुछ लोग अब भी तिब्बत में हैं, लेकिन उनसे बात नहीं कर सकते। चीन ने हर चीज पर पहरा लगा रखा है। चीनी सरकार उन्हें वीजा नहीं देती।
पिता से मिलने को बेताब है शीरिन
तिब्बत कॉलोनी के मशहूर ‘अमा कैफे’ में काम करने वाली 28 साल की शीरिंग पुटी 28 ने तिब्बत की समस्या का जिक्र किया। शीरिंग ने बताया कि उनके पिता अभी तिब्बत में ही हैं। तीन महीने पहले उन्होंने उनसे मिलने के लिए चीन से वीजा मांगा था लेकिन अब तक नहीं मिल सका है। शीरिंग के बताती हैं कि तिब्बतियों पर होने वाले किसी भी अत्याचार पर वे बात नहीं करते क्योंकि चीन की सरकार उनकी बातचीत सुनती है। यदि उन्होंने वहां के बारे में कुछ भी बताया तो उनकी गिरफ्तारी हो सकती है। शीरिंग ने बताया कि अगर वे तिब्बत जा पाईं तो तोयपा गांव में अपने पिता से पहली बार मिलेंगी।