शशिप्रभा तिवारी
नृत्यांगना संध्या पुरेचा और उनकी शिष्या सुहानी ने मेघदूत थिएटर में भरतनाट्यम नृत्य पेश किया। उनकी प्रस्तुति में नृत्य प्रस्तुति के साथ नृत्य का विश्लेषण शामिल था। इसलिए संध्या पुरेचा ने शास्त्रीय नृत्य में प्रयोग किए जाने वाले हस्तकों के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि एकल हस्तमुद्राएं दिक्पाल हस्त मुद्रा हैं। नृत्य प्रार्थना श्लोक-आंगिकम भुवनयस्य में हम शरीर को संपूर्ण ब्रह्मण्ड मानते हैं। भुवन-इस पृथ्वी के ऊपर सात लोक और पांच पाताल लोक सभी शामिल हैं। यस्य या शिव, जो हर प्राणी में है, ये रसिक जन। नृत्य की आंगिक भाषा में संपूर्ण ब्रह्माण्ड समाहित है। शिव के आभूषण चंद्र व तारे हैं। इसे नृत्य के जरिए शिष्या सुहानी ने दर्शाया।
अन्य श्लोक यतो हस्तो, ततो दृष्टि की चर्चा नृत्यांगना संध्या पुरेचा ने की। इसके बाद, उन्होंने हस्तकों, नेत्रों और भावों के जरिए इसे पेश किया। इसके बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए, उन्होंने बताया कि जीवन जीने की कला के बारे में इस श्लोक में विश्लेषित किया गया है। जहां हाथ हो वहीं नजर रहे, जहां नजर हो वहां मन और जहां मन हो वहीं भाव हो। इसका तात्पर्य है कि आप कोई भी काम करें तो उसे एकाग्रचित्त होकर करेंगे। तब वह अच्छी तरह से संपन्न होता है। इन श्लोकों में बहुत गूढ़ बातें सहज तरीके से कही गई हैं। अगर आप दुखी हैं, आंखों से आंसू बह रहे हैं, वह भाव को दर्शा रहा है। यही अभिव्यक्ति तो नृत्य के भाव हैं। आंगिक अभिनय सिखाया नहीं जा सकता है, इसे तो कलाकार को जीना पड़ता है, क्योंकि तभी सत्व आएगा।
उन्होंने अगले अंश में वरणम पेश किया। रचना मकादेहि मान राग तोड़ी पर आधारित थी। इसमें नृत्यांगना संध्या पुरेचा ने नायिका के भावों को विवेचित किया। नायिका भगवान शिव की भक्त है और वह उनसे प्रणय निवेदन करती है। इन भावों को उन्होंने कालांतक और गजासुर वध के प्रसंगों के वर्णन के साथ दर्शाया। उन्होंने कई कृति, कीर्तनम और पद्म पर भी विभिन्न रसों और भावों को विवेचित किया। उनकी बारीकियों का वर्णन किया। संध्या पुरेचा ने कहा कि शिव ने आनंद तांडव की खोज की। इसलिए नृत्य में आनंद पैदा करने के लिए लगातार लगन के साथ रियाज जरूरी है। तभी कलाकार का शिव तत्व जागृत होता है। और वह अपने नृत्य में आनंद का उद्भव कर पाता है। वह आनंद ही परमानंद की पराकाष्ठा होती है।