दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर में इंग्लिश साहित्य में एमए कर रहे अश्वेत ने इस बार तीसरे सत्र के लिए परीक्षा फीस का भुगतान पेटीएम से किया। अश्वेत का कहना है कि साल 2012 में बीए में दाखिले के लिए डीयू को भुगतान करना एक जंग सरीखा था। उस समय घंटों पहले कतार में खड़े होकर पहले बैंक चालान बनवाना होता था, फिर उसपर कैशियर से मोहर लगा कर बैंक में जमा करवाना होता था। और, इन सबमें कभी-कभी तो दो दिन का समय लग जाता था। लेकिन, इस बार 8554 रुपए की फीस पेटीएम से भरने में कुछ मिनटों का समय लगा। हाल ही में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने नकदी रहित भारत के लिए युवा भारत का साथ मांगा था। मंत्रालय का दावा है कि वह वित्तीय साक्षरता को राष्ट्रव्यापी अभियान बनाने की तैयारी में जुटा हुआ है। सभी शिक्षा संस्थानों को सभी तरह की फीसों का आॅनलाइन भुगतान स्वीकार करने के लिए कहा है। लेकिन यह भी सच है कि देश की राजधानी में डीयू जैसा केंद्रीय विश्वविद्यालय भी आधा ही डिजिटल हुआ है जबकि इसके बहुत से विद्यार्थी रोजमर्रा के कई कामों के लिए काफी पहले से डिजिटल हो गए हैं और ख्वाहिशमंद हैं कि कैंटीन भी डिजिटल हो जाए।
उत्तरी परिसर स्थित डीयू के एक हॉस्टल में रहने वाली छात्रा का कहना है कि अभी भी हॉस्टल के शुल्क आपको चेक या डिमांड ड्राफ्ट से देने होते हैं। और, आज के दिनों में डिमांड ड्राफ्ट बनवाना भी एक टेढ़ी खीर है। वहीं मिरांडा हाउस से भूगोल में स्नातक कर रही अंशिका का कहना है कि ऐसे बहुत कम विद्यार्थी हैं जिन्हें डीयू में हॉस्टल मिल पाता है। जो लोग स्थानीय निजी हॉस्टलों में रहते हैं नोटबंदी के बाद उनकी हालत बहुत बुरी है। अंशिका का कहना है कि नोटबंदी के बाद पहले महीने में तो निजी हॉस्टलों में आपको किराया और मेस शुल्क वगैरह नकदी में ही देना पड़ा था। अंशिका ने कहा, ‘हमारी कक्षाएं सुबह लगती हैं और दोपहर के खाने और चाय वगैरह के लिए हम पूरी तरह से कैंटीन पर निर्भर हैं और इसके लिए आपको रोज सौ से डेढ़ सौ रुपए खर्च करने पड़ते हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि स्नातक में दाखिले के लिए 15000 की फीस का भुगतान क्रेडिट कार्ड से किया था जो कि बहुत ही सुविधाजनक था’।
वहीं हिंदी से स्नातक कर रही माधवी का कहना है कि डीयू के विद्यार्थियों की दुनिया डीयू परिसर से बाहर भी अस्तित्व रखती है। माधवी ने कहा कि उसका मकान मालिक चेक से किराया लेने को तैयार नहीं था और ऐन परीक्षा के समय में उसे तीन से चार घंटे एटीएम के बाहर खड़ा रहना पड़ा। उसके बाद भी एक दिन में ढाई हजार रुपए ही निकल रहे थे। माधवी ने कहा कि मेरी परेशानी समझ पटना से मेरे पिताजी ने 15000 रुपए भिजवाए, और इसके लिए उन्हें जो परेशानी हुई उसके लिए मुझे बहुत बुरा लग रहा है। वैसे भी अपने परिवार से दूर दिल्ली में रहने वाले डीयू के विद्यार्थी को बहुत कतर-ब्योंत करने के बाद भी 15000 रुपए तक की जरूरत पड़ती ही है। और यहां एटीएम से एक दिन में सिर्फ ढाई हजार निकल रहे हैं।
माधवी का कहना है कि पहले दिन जब मैं एटीएम की कतार में खड़ी हुई थी तो मैंने देखा कि बहुत से लड़के-लड़कियां हाथों में किताब लेकर खड़े थे। उस दिन तो मुझे उन्हें देख कर हंसी आई, लेकिन जब मुझे कतार में डेढ़ घंटे का वक्त लगा तो मुझे खुद पर गुस्सा आया। लेकिन, दूसरे दिन मैं भी कतार में किताब लेकर खड़ी थी, क्योंकि परीक्षा के समय में आपके लिए डेढ़ घंटे मायने रखते हैं। मुखर्जी नगर में ही रहने वाले सुयश ने कहा कि आप यकीन नहीं करेंगी, नोटबंदी के शुरुआती दिनों में मुझे अपनी खुराक आधी करनी पड़ी थी क्योंकि ढाबे वाले को पैसे देने के लिए नकदी नहीं थी। सुयश कहते हैं कि वैसे, हम जैसे विद्यार्थी को जितने पैसे की जरूरत होती है वो तो अभिभावक ही देते हैं और हमारा ज्यादा ध्यान पढ़ने-लिखने पर होता है। कम जरूरतें रखने के बाद भी हमें दिक्कत हो रही है। डीयू अपने शैक्षणिक स्तर तक ही डिजिटल है, उसके बाद विद्यार्थियों के रोटी और मकान की जरूरतों का भुगतान डिजिटल हो तो बेहतर है।

