कहते हैं दिल्ली में सांप की आंख-सा आकर्षण है। जो आता है बस इसी का होकर रह जाता है। लेकिन इस होकर रह जाने में सर्पदंश का भय साये की तरह चलता रहता है। वैसे, एक करोड़ तेईस लाख वोटरों वाली दिल्ली का सच उसका अपना रंग है क्योंकि दिल्ली में एक तरफ मेहनतकशों की आजीविका का सवाल तो दूसरी तरफ चकाचौंध के लिए यूरोप-अमेरिका से टक्कर की ख्वाहिश। एक तरफ इज्जतदार जिंदगी को रफ्तार देने का सवाल तो दूसरी तरफ रफ्तार के डर से किसी तरह अंधेरे से पहले घर सुरक्षित पहुंचने का सवाल। एक तरफ गंदगी में समाया शहर तो दूसरी तरफ ठंडी हवा में शीशे से देखने वालों के बीच खोया शहर। एक तरफ लुटियंस की दिल्ली तो दूसरी तरफ झुग्गी को पक्के मकान में बदलने भर का सियासी सपना।

यह कल्पना के परे है कि देश की राजधानी में हर दिन एक नई शुरुआत के डर से शुरू होता है। दिल्ली वाला रात में बैठकर यकीन से नहीं कह सकता कि अगली सुबह उसके दफ्तर जाने का रास्ता कौन-सा होगा। कहां से सब्जी मिलेगी या कहां से डीटीसी बस मिलेगी। किस रफ्तार से अपने मुकाम पर पहुंचेगा। पानी आएगा या नहीं। बिजली मिलेगी या नहीं। उसे कुछ भी पक्का पता नहीं होता। प्लास्टिक के इस्तेमाल पर रोक। पटाखों से परहेज।


यमुना की सफाई। 15 बरस पुराने वाहनों को टाटा, बाय-बाय। रेहड़ियों पर बिकते सामानों से बचना। पटरियों पर पैदल वाले ही चलें। जेब्रा क्रांसिग पर रुकें। लाल बत्ती टापे नहीं। गाड़ियों का इस्तेमाल अकेले सफर के लिए न करें। बुजुर्गी का खयाल रखें। उपदेश और अभियान में खोई दिल्ली कल भी थी। आज भी है।

चावड़ी बाजार हार्डवेयर के बाजार में बदल गया। चांदनी चौक कपडे के बाजार में। झल्ली वाले मजदूर कहकर पुकारे जाने लगे। तांगे वाले खत्म हो गए। तैरती आबादी में रात गुजारने के लिए छत गैरजरूरी हो गई। स्टोव पर खाना आज भी बन रहा है। ट्रांजिस्टर से गाने आज भी सुने जा रहे हैं। ठेले वाले, सामान उठाने वाले, रिक्शा वाले पालिश करने वाले, दुकानों के आगे बनी सीमेंट की पटरी पर आज भी सोते नजर आते हैं। इस दिल्ली में जो रमा वह वहीं का रहा। बस्तियां बढ़ीं। डीडीए कॉलोनी की रफ्तार हो या अशोक विहार, लारेंस रोड, वसंत कुंज, सरिता विहार। यहां तक की यमुना की जमीन भी रहने के लिए हथियाई गई और फिर उसे कानूनी करार दे दिया गया। रास्ते पगडंडियों के आसरे खुद निकलते चले गए। लोग बसते चले गए। दिल्ली ने अंग्रेजों की लुटियंस को भी सहेजा और विभाजन के दर्द की भी गवाह रही।

तंग गलियों की गंदगी के इर्द-गिर्द नौ हजार बस्तियों को भी दिल्ली ही संजोए है और साढ़े चार हजार से ज्यादा आवासीय कॉलोनियों को सुविधाओं से लैस करने के सियासी नारों को भी दशकों से फंसाए हुए है। 50 वर्ग फुट में कई परिवारों का गुजारा भी दिल्ली में ही है और 5000 वर्ग फुट का बाथरूम भी दिल्ली की आलीशान गाथा है। इनकी रंगत ने एमसीडी को सियासी काम दिया। लेकिन हर दिन दिल्ली की तरफ बढ़ते कदम कभी थमे नहीं।

हर समुदाय ने दिल्ली में डेरा जमाया। रहन-सहन को बिना छोडेÞ। भाषा को बिना अपनाए अपनों के बीच खोए रहने वाले समुदाय को भी दिल्ली ने ठौर दी।

संयोग से दिल्ली की ही सियासत ने देशभर में बदहाली का ऐसा माहौल भी बनाया कि हर कोई यहां का रुखकर चलने को मजबूर हुआ। 1991 के बाद से जिस रफ्तार से देश के हर कोने से भागते लोगों को यह नगरी अपने में समाने लगी, उसने पहली बार यह सवाल खड़ा कर ही दिया कि जब दिल्ली की सल्तनत फेल है तो फिर दिल्ली में ही क्यों बसा जाए। 1991 में 94 लाख लोगों की दिल्ली 2015 में दो करोड़ तक जा पहुंची है। जरा कल्पना कीजिए कि दिल्ली सिर्फ सियासी ताकत का ही प्रतीक नहीं बल्कि एक हिंदुस्तान में बसे दो भारत की भी मिसाल है।

इस दिल्ली में चुनाव के वक्त किसे पता था कि संविधान का अनुच्छेद 21 ही राजनीतिक दलों के मैनेफेस्टो और विजन का आईना बन जाएगा। यानी जिस जीवन के साथ कुछ न्यूनतम अधिकार संविधान ने दे दिए , उन्हीं अधिकारों को चुनावी राजनीति अपने होने के एहसास के साथ जोड़ लेगी।

बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य, नौकरी , प्रदूषण मुक्त वातावरण, सब कुछ तो संविधान में जीवन के अधिकार के साथ जुड़ा हुआ है, और किसी भी राज्य को अपने नागरिकों को ये सुविधाएं देनी ही हंै। तो क्या दिल्ली की सत्ता इसीलिए सबसे महत्त्वपूर्ण हो चली है कि दिल्ली की सियासी गाथा देश के सामने दिल्ली से अगर संसद और संविधान का सच बताने लगेगी तो राजनेताओं की पोलपट्टी खुलने में कितना वक्त लगेगा।

तो क्या पहली बार दिल्ली चुनाव देश के सामाजिक-आर्थिक हालात का आईना बनकर हर उस राजनीतिक पार्टी को डरा रहा है जिसकी रिहायश लुटियंस की दिल्ली में है। क्या दिल्ली चुनाव पहली बार संसदीय राजनीति के मुखौटे को उतारने के लिए तैयार हो चला है, या फिर पहली बार दिल्ली चुनाव मुखौटे की राजनीति के जरिए जनता को अराजक करार देकर आखिरी युद्धघोष की दिशा में बढ़ रही है।

दिल्ली चुनाव में हर अक्स टूट रहा है। सिर्फ मुख्यमंत्री की दौड़ के नेता ही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर देश का हर मंत्री पहली बार चकाचौंध की राजनीति खारिज कर रहा है। गरीबों को दिल्ली से बाहर करने वाले सोच को डिब्बे में बंद किया जा रहा है। कंपनियों की लूट के आसरे बिजली सप्लाई पर सवाल उठाया जा रहा है। पीने का पानी देने की खुली वकालत हो रही है। दिल्ली को गरीबों से मुक्ति का सपना भी दिखा दिया गया। दिल्ली के जिस युवा को सपने की उड़ान दी जा रही है उनमें लाखों बेरोजगार हैं। इनमें 94 फीसद की उम्र 15-29 वर्ष के बीच है।

असल में दिल्ली की हालत भी देश के दूसरे शहरों से अलग नहीं है। झुग्गी के बदले मकान दिल्ली में भी चाहिए। बिजली, पानी, सड़क सरीखी जरूरतें यहां भी चाहिए। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक की जरूरत दिल्ली को भी है।

गरीबों की भरमार दिल्ली में भी है। साढ़े तीन लाख परिवार दिल्ली में भी गरीबी की रेखा से नीचे हैं। यही वे सवाल हंै जिन्हें इससे पहले के चुनाव में अक्सर राजनीतिक दल दिल्ली की चकाचौंध तले छुपा देते थे। अर्से बाद हर राजनीतिक दल मान रहा है दिल्ली को देखने का चश्मा बदलना होगा। यानी राजनीति के कीचड़ में चाहे कोई बदलाव नहीं आया हो, लेकिन नजरिया साफ हो रहा है कि सियासत साधने के लिए खुद को जनता से इतर खड़ा कर अलग दिखने का सोच बेमानी है। ये चुनाव लुटियंस की दिल्ली को डरा भी रहे होंगे, क्योंकि पूर्वी दिल्ली हो या पश्चिमी दिल्ली या फिर उत्तर-पूर्वी दिल्ली, गांव और शहरों में सब कुछ गंवाकर रोजी-रोटी के लिए पहुंचे लोगों का हुजूम है। वह बार-बार अपनी जड़ों में लौटना चाहता है। लेकिन सियासी बिसात ही प्यादा बनाकर उन्हें जाने नहीं देती और दिल्ली की बदहाली भी उनकी अपनी जड़ों पर भारी पड़ती है।

यह समझना होगा कि दिल्ली शहर की जिंदगी उसे बसाने वालों की मौत से शुरू होती है। इतिहास में दफन हैं दिल्ली को बसाने वाले। बनाने वालों की फेरहिस्त इतनी लंबी है कि दिल्ली पग-पग पर इतिहास को जीती है। शायद इसीलिए दिल्ली की सड़कें, भटकाव में कभी अकेलेपन का अहसास नहीं होने देती। इतिहास साथ-साथ सफर करता है। और इतिहास का पात्र शहंशाह हो या संघ परिवार सभी को पढ़ाता जरूर है। शायद इसीलिए पहली बार संसदीय राजनीति का शहंशाह दिल्ली की गलियों में फंसा नजर भी आता है। जहां से इतिहास झांकता है इतिहास रचने के लिए।

 

पुण्य प्रसून वाजपेयी (टिप्पणीकार आजतक से संबद्ध हैं।)