आम भाजपा कार्यकर्ता से लेकर संघ तक का नरेंद्र मोदी से मोहभंग होने लगा है। जहां पार्टी कार्यकर्ता खुद को बेहद उपेक्षित महसूस कर रहे हैं वहीं संघ के किसी भी निर्देश का सरकार पालन नहीं कर रही है। उसके सुझावों व सलाह पर अमल नहीं किया जा रहा है।

राजधानी में भाजपा के कार्यकर्ताओं से लेकर नेता तक यह महसूस कर रहे हैं कि अब पार्टी में परिवार सरीखा कुछ नहीं बचा है। इस चुनाव में वरिष्ठ नेताओं से लेकर कार्यकर्ता तक की जो उपेक्षा की गई है उसे देखते हुए अगर पार्टी बहुमत हासिल कर लेती है तो यह मानना पड़ जाएगा कि इस बार भी मोदी को ही वोट मिला है।

यह ऐसा चुनाव है जहां पार्टी के ज्यादातर लोगों का यही मन है कि नरेंद्र मोदी व अमित शाह की जोड़ी को सबक मिले। वे चुनाव को इन दोनों नेताओं को सच्चाई से परिचित करवाने का अंतिम मौका मान रहे हैं। विजय कुमार मल्होत्रा से लेकर विजय गोयल तक सभी नेता एकदम उपेक्षित व आहत हैं। उम्मीदवारों के चयन से लेकर प्रचार तक में उनकी भूमिका नगण्य रही है। एक नेता का कहना था कि अब पार्टी की हालत यह है कि किरण बेदी का नेतृत्व हमें स्वीकार करना पड़ेगा। दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पार्टी में अब अवतार सिंह भड़ाना, कृष्णा तीरथ और अनुराधा चौधरी सरीखे नेता हैं। बसपा के दारा सिंह चौहान, फतेह बहादुर सिंह (राकांपा), जुगल किशोर (बसपा के सांसद) बाबू सिंह कुशवाहा (जेल में) के परिवार, संघ परिवार के लोगों को नेतृत्व प्रदान करेंगे।

आम कार्यकर्ता व नेताओं का मनोबल इसलिए भी धरातल छू रहा है क्योंकि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दरजा दिलाने की मांग करती आई पार्टी केंद्र में पूर्ण बहुमत मिलने के बाद इस मुद्दे पर चुप्पी साध गई है। पार्टी यह मामला 1967 से उठाती आई है। मेवाराम आर्य ने 1993 में विधानसभा बनने के बाद 1994 में हुए उसके पहले सत्र में यह मुद्दा उठाया था। बाद में जब शीला दीक्षित को तत्कालीन उप-राज्यपाल के कारण नीचा देखना पड़ा तो उन्होंने भी यह बिल पारित करवा कर केंद्र सरकार को भेज दिया था। इसके तहत एनडीएमसी इलाका, पुलिस व डीडीए के अलावा बाकी सारे अधिकार दिल्ली सरकार को सौंपे जाने थे। तत्कालीन राजग सरकार में उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने इसे बिल चयन समिति के पास भेज दिया और अब जबकि केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार है तो इस बारे में पार्टी चुप्पी साध गई है। पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं के लिए जवाब दे पाना मुश्किल हो रहा है।

संघ भी मोदी सरकार से खुश नहीं है। उसके मुखपत्र ‘आर्गनाइजर’ के ताजा अंक में स्वीकार किया गया है कि किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाना पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं को हजम नहीं हुआ। सूत्र बताते हैं कि संघ की बिलकुल नहीं सुनी जा रही है। संघ चाहता था कि ए सूर्यप्रकाश की जगह अशोक टंडन को प्रसार भारती का प्रमुख बनाया जाए। वे वाजपेयी सरकार में प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार रह चुके थे पर उसकी बात नहीं मानी गई। संघ लालकृष्ण आडवाणी को आइसीसीआर का प्रमुख बनाना चाहता था। लेकिन उन्हें यह पद इस आधार पर नहीं दिया गया कि उनकी आयु काफी ज्यादा है।

लेकिन कुछ दिनों बाद उनसे भी दो साल बड़े व्यक्ति को जिनका भाजपा से कुछ लेना-देना नहीं था यह पद सौंप दिया गया।

सूत्रों के मुताबिक, संघ ने मोदी सरकार को 12 लोगो की सूची सौंपी थी जिन्हें पद्म पुरस्कार प्रदान किए जाने थे पर एक को भी यह नहीं दिया गया। संघ को विवेकानंद संस्थान के लोगों को अहम पदों पर बैठाना पसंद नहीं है। इसके बावजूद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल से लेकर प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्र तक इसी संस्थान से हैं।

संघ और मोदी के बीच टकराव शुरू होने के कई कारण रहे हैं। संघ कभी भी अमित शाह को भाजपा अध्यक्ष बनाए जाने के पक्ष में नहीं था। मोदी के दबाव में उसे यह कदम उठाना पड़ा। हाल की कुछ घटनाओं के कारण भी संघ व मोदी के बीच की दूरी बढ़ी है। इनमें घर वापसी के मुद्दे पर धर्म जागरण मंच के प्रमुख राजेश्वर सिंह को छुट्टी पर भेजा जाना, साक्षी महाराज का हिंदू महिलाओं से चार बच्चे पैदा करने की अपील के बाद उन्हें कारण बताओ नोटिस देना भी शामिल है। सूत्र बताते हैं कि संघ ने अपनी ताकत व नाराजगी जताने के लिए संजय जोशी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आमंत्रित किया। उनके मोदी से संबंध बेहद खराब रहे थे व उनके कारण ही उन्हें राष्ट्रीय कार्यकारिणी से हटाया गया था। अब देखना यह है कि संघ से बढ़ती मोदी की दूरी का इस चुनाव पर क्या असर पड़ता है।

 

विवेक सक्सेना