मनोज मिश्र

नई दिल्ली। दिल्ली विधानसभा भंग करने के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक पीठ में 10 अक्तूबर को सुनवाई होने से पहले एक बार फिर दिल्ली में सरकार बनाने की हलचल दिखने लगी है। आम आदमी पार्टी (आप) के रोहिणी के विधायक राजेश गर्ग की पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल को लिखी सार्वजनिक चिठ्ठी इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। भले ही आप नेता इस पर बोलने से बचे लेकिन वास्तव में गर्ग जैसे आप के ज्यादातर विधायक मध्यावधि में जाने से बचने का आखिरी रास्ता खोजने में लगे हुए बताए जा रहे हैं। वैसे सरकार बनाने की कोशिश में आखिरी दांव लगाने वाली भाजपा के दिल्ली के प्रभारी और राज्य सभा सदस्य प्रभात झा इस पर सीधी प्रतिक्रिया देने के बजाए फैसला अदालत और उपराज्यपाल पर सौंप रहे हैं। उनके मुताबिक उन्होंने तो सभी जीते-हारे विधायकों को अपने इलाके में चुनाव की तैयारी करने को कहा है। संभव है कि पार्टी हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के बाद ही फैसला करेगी।

दस अक्तूबर को अदालत में सरकार क्या जबाब देगी इस पर वे कुछ बोलने को तैयार नहीं हैं। उनके मुताबिक यह काम पार्टी का नहीं है। यह मान लिया गया है कि 16 फरवरी 2015 तक तो राष्ट्रपति शासन है ही, उसमें अदालत कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी। यह भी संभव है कि जिस तरह से उपराज्यपाल का चार सितंबर को राष्ट्रपति से सबसे बड़े दल भाजपा को सरकार बनाने की इजाजत मांगना सरकार बनाने से अधिक 9 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट से समय लेना अधिक था। उसी तरह से इस बार भी अदालत की तारीख से पहले सरकार बनाने की हलचल दिखाई जा रही है। प्रभात झा तो आप को अब गंभीरता से लेने से ही इनकार कर रहे हैं। उनके मुताबिक अगर कुछ न किया जाए और फरवरी तक राष्ट्रपति शासन के बाद चुनाव करवाए जाएं तो गिनती के विधायक खड़े मिलेंगे। यह पार्टी अचानक ही वजूद में आई। न तो इसकी कोई नीति है और न ही कार्यक्रम और न ही विचारधारा, यह अचानक ही अकाल मृत्यु को प्राप्त करने वाली है। राजेश गर्ग ने जो सवाल उठाए हैं, वैसे सवाल उस पार्टी को बनाने वाले अनेक नेता भी पहले उठा चुके हैं। गर्ग ने केजरीवाल पर पैसे वालों का साथ देने और बेवजह दिल्ली को दोबारा चुनाव में झोंकने का आरोप लगाया है।

आप ने इस पर कोई सीधी प्रतिक्रिया नहीं दी है। उसके एक बड़े नेता का कहना है कि गर्ग के मुद्दे कुछ अलग तरह के हैं। वे पार्टी के साथ हैं लेकिन दोबारा चुनाव में जाने से कतरा रहे हैं। ऐसी समस्या हर दल के ज्यादातर विधायकों के साथ है। अब जब भी चुनाव होंगे बड़े बदलाव होने वाले हैं। ज्यादातर विधायक अपनी सीट से चुनाव न जीत पाने की आशंका से डरे हुए हैं। यह भी आशंका है कि दोनों राज्यों के चुनाव में भाजपा की जीत होने से दिल्ली के गैर भाजपा दलों में हड़कंप मचे और भाजपा की सरकार बनवाने के लिए सात-आठ विधायक इस्तीफा ही दे दें। माना जा रहा है कि इनमें से कुछ को भाजपा दोबारा टिकट देने या कोई पद देने की पेशकश कर सकती है। भाजपा नेता तो चैन से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सफाई अभियान चलाते, जैसा दावा प्रभात झा लंबी मुलाकात में कर रहे थे। अगर दिल्ली विधानसभा की तीन सीटों का 30 नवंबर के पहले उपचुनाव न करवाना जरूरी होता। भाजपा के तीन विधायकों के सांसद बनने से खाली सीटों पर उपचुनाव करवाने के लिए हर हाल में इस महीने के आखिरी सप्ताह में चुनाव की अधिसूचना जारी होनी चाहिए। यानी किसी भी हाल में अक्तूबर में या तो सरकार बने या विधानसभा भंग हो या फिर कृ ष्ण नगर, तुगलकाबाद और महरौली विधान सभा सीटों के उपचुनाव घोषित हों।

यह तो सही है कि लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही भाजपा सरकार बनाने की कवायद में लगी हुई है। इसलिए जाहिर है कि अगर सरकार बनने की संभावना दिखती है तो उपराज्यपाल भाजपा को ही सरकार बनाने के लिए बुलाएंगे। यह अलग बात है कि दिसंबर चुनाव के बाद विधायक दल के नेता बने हर्षवर्धन के सांसद बनने के बाद अभी तक भाजपा ने विधायक दल का नेता नहीं बनाया है इसलिए उपराज्यपाल किसे सरकार बनाने के लिए बुलाएंगे। केंद्र में भाजपा की सरकार होने के बाद यह तो तय ही है कि उपराज्यपाल नजीब जंग वही करेंगे, जो भाजपा कहेगी। इसके बावजूद अदालत को पिछली तारीख यानी 9 सितंबर को जो उपराज्यपाल ने अर्जी दी, वह चौंकाने वाली थी। परंपरा यही रही है कि त्रिशंकु विधानसभा में सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए तब आमंत्रित किया जाता है जब वह सदन में बहुमत का आंकड़ा जुटाने का फार्मूला बताए। विधानसभा भंग करने से पहले उपराज्यपाल को यह अधिकार है कि वह बार-बार सरकार बनाने का विकल्प खोजें। यह भी संभव है कि किसी आपात समय में वे खुद पहल करके सदन की सरकार बनवाने की कोशिश करें, तब नियमों में ढील हो सकती है। लेकिन यह कैसे उचित है कि कोई उप राज्यपाल किसी ऐसे दल की सरकार बनाने की राष्ट्रपति या सुप्रीम कोर्ट से इजाजत मांगे, जिसके पास न तो बहुमत का आंकड़ा है और न ही उस दल ने सरकार बनाने का दावा किया है। इतना ही नहीं, जिसने अपने दल का नेता तक नहीं चुना।

दिसंबर के विधानसभा चुनाव में 70 सदस्यों वाली विधानसभा में अकाली दल के एक सदस्य समेत भाजपा के 32 और आप के 28 सदस्य थे। भाजपा के तीन सदस्यों के सांसद बनने के बाद भाजपा के सदस्यों की संख्या 29 रह गई। वहीं आप के एक विधायक विनोद बिन्नी के अलग होने से आप के विधायकों की तादाद 27 रह गई है। सदन की तीन सीटें खाली हो जाने के कारण सदन की संख्या 67 हो गई है। भाजपा को बहुमत के लिए चार सदस्यों का समर्थन चाहिए। तीन सदस्य अन्य और निर्दलीय हैं उनमें दो तो भाजपा के साथ ही हैं। वैधानिक तरह से सरकार तो किसी दल के बहुमत से चुने जाने से बनती है। दूसरा विकल्प होता है कि या तो चुनाव से पहले या चुनाव बाद कुछ दलों का ऐसा गठबंधन बन जाए जिसके पास बहुमत का आंकड़ा हो। तीसरी स्थिति है कि सरकार बनाने के लिए किसी दल के दो तिहाई सदस्य टूटकर दूसरे दल में मिल जाएं या आखिरी स्थिति यह है कि उपराज्यपाल सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए बुलाएं और बहुमत साबित करने के लिए कुछ दिन का समय दें। सदन में मतदान के समय बहुमत के लिए जरूरी संख्या में सदस्य पार्टी वीप का उल्लंघन कर मतदान में सरकार बनाने वाली पार्टी का समर्थन करे या मतदान के समय गायब हो जाएं। सरकार तब भी बच जाएगी लेकिन इस स्थिति के लिए गलत तरीके नहीं अपनाए जाएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। हर छह महीने पर विश्वास मत यही प्रक्रिया दुहराना कठिन है।

जो बात अब निकल कर आ रही है कि अगर सरकार बनानी है तो कुछ विधायकों से इस्तीफा दिलवाया जाए। इससे बहुमत साबित करने के लिए कम विधायकों की जरूरत होगी और सरकार बनाकर उपचुनाव करवाए जाएं। हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजे भाजपा के पक्ष में आने पर यह काम आसान हो सकता है, इसलिए माहौल बनाकर 10 अक्तूबर को अदालत से एक बार फिर तारीख लेकर कुछ दिन और इंतजार किया जाए।