मुंबई के कांदिवली में रहने वाले अमित और दक्ष सिद्धापुरा ने एक बड़ा संकल्प लिया था। दोनों ने एक-दूसरे से वादा किया था कि यदि कभी अंगदान का मौका आया तो जीवित साथी ऐसा करने से हिचकेगा नहीं। 27 दिसंबर 2018 को 51 वर्षीय दक्षा को बहुत तेज और असामान्य सिरदर्द हुआ। ऐसे में उनका 25 वर्षीय बेटा नीरव उन्हें लेकर कांदिवली के श्री साईं हॉस्पिटल ले गया, जहां डॉक्टर्स ने पांच घंटे बाद ही उन्हें ब्रैन डेड घोषित कर दिया। इस हॉस्पिटल के पास अंगदान के लिए लाइसेंस नहीं था। अंगदान के उनके संकल्प को देखते हुए परिजनों ने उन्हें अंधेरी के कोकिलाबेन अंबानी अस्पताल में शिफ्ट कर दिया।

नीरव ने कहा, ‘अपने माता-पिता के अंगदान के संकल्प के बाद मैंने इससे जुड़े कई सेमिनार में हिस्सा लिया। किसी को दूसरा जीवन देने से बेहतर कुछ भी नहीं है।’ दक्षा के अंगों ने चार मरीजों की जिंदगी बचा ली। भारत में अंगदान को लेकर धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ रही है। एक अंगदाता आठ लोगों की जिंदगी बचा सकता है, दो लोगों को रोशनी दे सकता है और कई लोगों की जिंदगी सुधार सकता है।

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जीते जी अंगदान करने का फैसला करना आसान नहीं है। टीओआई की रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर साल लिवर फेल्योर के करीब 85 हजार मरीज आते हैं, इनमें से महज तीन फीसदी को ही लिवर मिल पाता है। हर साल किडनी के लिए करीब दो लाख लोग रजिस्ट्रेशन करवाते हैं, लेकिन बमुश्किल करीब आठ हजार लोग ही ट्रांसप्लांट करवा पाते हैं। दिल और फेफड़ों के लिए हजारों लोग इंतजार कर रहे हैं लेकिन महज एक फीसदी को समय से अंग मिल पाते हैं। पांच सालों में जागरूकता बढ़ने के बावजूद आवश्यकता और उपलब्धता का अनुपात बेहद ज्यादा है।

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