शास्त्रीय संगीत की अनमोल विरासत के प्रति जागरूकता और रुचि बढ़ाने और संभावनाशील युवा प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से शुरू की गई ‘बैठक’ लीजेंड्स आॅफ इंडिया की नई पहल है। संगीत नाटक अकादमी के साथ मेघदूत सभागार में सुबह के रागों की और इंडिया इंटरनेशनल (आइआइसी) के साथ शाम के रागों की उनकी यह बैठक शृंखला काफी लोकप्रिय हो चली हैं। बीते सप्ताह आइआइसी सभागार में आयोजित लीजेंड्स आॅफ इंडिया बैठक में संगीत-प्रेमियों की भरीपूरी उपस्थिति इस बात की गवाह थी।
किराना घराने के युवा प्रतिनिधि अरशद अली बचपन से ही बाल-प्रतिभा (चाइल्ड प्रोडिजी) के रूप में मशहूर हुए। आइटीसी के कोलकाता स्थित गुरुकुल एसआरए में शायद वे सबसे कम उम्र के स्कॉलर थे जब उनकी तालीम किराना घराने के उस्ताद मशकूर अली खां की निगरानी में शुरू हुई। आज देश- विदेश में उनका गायन सराहा जा रहा है।
इस शाम उन्होंने राग शुद्ध-कल्याण में अपने घराने के प्रचलन के अनुसार विलंबित झूमरा ताल में बड़ा ख्याल गाते हुए इस राग के व्याकरण सम्मत विस्तार और सरगम और आकर की दानेदार तैयार तानों से प्रभावित किया। इसके बाद तीनताल में छोटा ख्याल ‘मंदर बाजे’ भी धुआंधार तानों से सजाकर पेश किया। हाालांकि अगर वे मुख्य राग को इतना लंबा न खींचते तो पुनरावृत्ति दोष से भी बच जाते और श्रोताओं को शायद कोई अन्य राग भी सुनने को मिल पाता।
गायन का समापन उन्होंने खमाज की मीठी बंदिश ‘कोयलिया कूक सुनावे’ से किया। अरशद ने इसके साथ तो अद्धा ठेका ठीक-ठाक बजाया, लेकिन ‘मंदर बाजे’ जैसी जानीसुनी बंदिश में उनका ताल समझने के लिए ठिठकना अटपटा था। पूर्बायन चटर्जी का सुमधुर सितार इस शाम को अविस्मरणीय बना गया। पं पार्थो चटर्जी के प्रतिभाशाली सुपुत्र और शिष्य पूर्बायन के साथ तबले पर पं अनिंदो चटर्जी के होनहार बेटे और शागिर्द अणुव्रत चटर्जी थे, जिनकी संवेदनशील संगति ने सितार का आनंद द्विगुणित कर दिया। शाम के ोकप्रिय राग केदार में बेहद मीठे आलाप-जोड़ सहित पूर्बायन ने पं डीबी पुलस्कर द्वारा अमर कर दी गई दो मशहूर बंदिशें, झपताल में ‘जागे कौन’ और तीनताल में ‘कान्हा रे नंद नंदन’ पहले गाकर और फिर बजाकर श्रोताओं को अपनी प्रतिभा का सुरीला परिचय दिया। आलाप के दौरान मंद्र सप्तक में लरज-खरज का काम जितना प्रभावी था उतना ही चपला:सी कौंधती तैयार तानों का ‘सम’ की मधुर मींड में विलीन हो जाना।
अपने कार्यक्रम का समापन पूर्बायन ने एक ठुमरी पहाड़ी से किया। उनका बजाना रूमानियत में मिश्री की डली के घुल जाने जैसा था, लेकिन लोगों के जेहन में बसी शोभा गुर्टू की आवाज के सामने उनका गाना फीका पड़ गया। ठुमरी के अंतिम चरण में अणुव्रत की टनटनाती लग्गी लाजवाब थी। उन्होंने पूरे समय जितनी सधी हुई और अनाक्रामक तबला संगति की उसके प्रत्युत्तर में तबले को मौका देते समय पूर्बायन भी महज बाज के तार पर लहरा कायम रखते जिससे सितार की अनावश्यक झंकार तबले की प्रखर प्रस्तुति में खलल न डाले। दोनों कलाकारों के बीच इस तरह की परस्पर समादरयुक्त सहभागिता सराहनीय थी।