दलितों के लिए अलग कब्रिस्तान आवंटित किये जाने की परंपरा की आलोचना करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय ने सोमवार को कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार खुद ही जाति के आधार पर विभाजन को बढ़ावा दे रही है। तमिलनाडु के वेल्लोर जिले में दलितों के एक श्मशान घाट जाने वाले मार्ग को बाधित किये जाने के बाद अदालत अपनी ही एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी। गौरतलब है कि श्मशान घाट जाने वाले रास्ते को बाधित किये जाने के चलते समुदाय के सदस्य अपने सगे-संबंधियों के शव को एक नदी पर स्थित पुल से नीचे गिराने के लिए मजबूर हैं।

न्यायमूर्ति एस मणिकुमार और न्यायमूर्ति सुब्रहमण्यम प्रसाद की पीठ ने अपनी मौखिक टिप्पणी में इस बात का जिक्र किया कि सभी लोग– चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के हों– को सभी सार्वजनिक स्थानों पर प्रवेश की इजाजत है।  उच्च न्यायालय ने कहा कि ‘आदि द्रविड़ों’ (अनुसूचित जाति) को अलग कब्रिस्तान आवंटित कर सरकार खुद ही ऐसी परंपरा को बढ़ावा देती दिख रही है।

पीठ ने यह भी पूछा कि क्यों कुछ स्कूलों को आदि द्रविड़ों के लिए अलग स्कूल कहा जाना जारी है, जबकि राज्य सरकार ने सड़कों से जाति के नाम हटा दिये हैं।  इसके बाद अदालत ने वेल्लोर जिला कलेक्टर और वनियाम्बडी तहसीलदार को कब्रिस्तान के आसपास ग्रामीणों द्वारा इस्तेमाल की गई भूमि का ब्यौरा सौंपने का निर्देश दिया।

खबरों के मुताबिक चेन्नई से 213 किमी पश्चिम की ओर वनियाम्बडी कस्बे के पास स्थित नारायणपुरम गांव के दलित समुदाय के लोग अपने सगे-संबंधियों के शवों को नदी पर स्थित पुल से नीचे गिराने के लिए मजबूर हैं क्योंकि नदी तट पर स्थित कब्रिस्तान तक जाने का रास्ता दो लोगों के कथित अतिक्रमण के चलते बाधित हो गया है। उच्च न्यायालय ने एक अंग्रेजी अखबार में इस बारे में एक खबर प्रकाशित होने पर पिछले हफ्ते इस मुद्दे का संज्ञान लिया। पीठ ने पिछले हफ्ते तमिलनाडु के गृह सचिव, वेल्लोर जिला कलेक्टर और तहसीलदार को नोटिस जारी कर इस मुद्दे पर उनसे जवाब मांगे थे।