Harish Damodaran
मध्यप्रदेश या देश के किसी और क्षेत्र में किसानों को उनकी उपज का उचित भाव ना मिलना हाल के दिनों में चिंता का कारण रहा है। हालांकि किसानों के लिए समस्याएं सिर्फ इतनी ही नहीं है, बल्कि नोटबंदी के बाद उन्हें नकद भुगतान भी नहीं किया जा रहा है। कैलाश पटेल, जिन्होंने कुल 135 क्विंटल उपज में से 36.10 क्विंटल सोयाबीन देवास जिले में 3,237 प्रति क्विंटल के भाव से बेची (उपज की यह कीमत उन्हें अपने गांव से 29 किलोमीटर दूर कन्नौद थोक अनाज मंडी से मिली है) जिसकी कुल कीमत 116,856 रुपए बैठती है। मगर कैलाश घर दस हजार रुपए ही नकद ले जा पाए। पटेल ने बताया, ‘यह सबसे अधिक रकम है जो व्यापारी नकद में दे रहे हैं। मझे बताया गया कि वो सरकार की अनुमति से ऐसा कर रहे हैं। बची हुई रकम 106,856 रुपए में बैंक खाते में ट्रांसफर की गई है। हालांकि इससे मुझे बुरा नहीं लगेगा। समस्या यह है कि पैसा अकाउंट में आने में ही करीब सात से आठ दिन का समय लगेगा।’
पटेल के मुताबिक बाकी की रकम एनईईटी यानी नेशनल इलेक्ट्रोनिक फंड्स ट्रांसपर के जरिए उसी दिन किसानों के खातों में जमा की जा सकती है, मगर व्यापारी बहाने बनाते हैं कि अकाउंट नंबर की एंट्री में गड़बड़ी के चलते आईटी सिस्टम काम नहीं कर रहे। पटेल का दावा है, ‘पूर्व में ऐसा कुछ नहीं था। किसानों को उनकी उपज का नकद भुगतान किया जाता था। यहां तक हमें भुगतान के लिए फोन तक नहीं करना पड़ता था। मगर आज बैंक में पैसा पहुंचने के बाद भी मुझे अपनी रकम निकालने के लिए लाइन में खड़ा होना पड़ेगा। मेरे गांव के पास वाली ब्रांच में तो हमेशा कैश कि किल्लत रहती है। इसके अलावा 50 हजार रुपए अधिक की कैश निकासी पर पैन कार्ड अलग से दिखाना पड़ता है।’ पटेल के मुताबिक सबकुछ नोटबंदी की वजह से हुआ। उन्हें (भाजपा) एक सबक सिखाया जाना चाहिए।
कैलाश पटेल के विचारों से रामसिंह चौधरी सहमत होते हुए कहते हैं, ‘जब एक किसान 30-40 क्विंटल ट्रैक्टर-ट्रोली उपज लेकर मंडी पहुंचा है तो वह केवल फसल बेचने नहीं आता है बल्कि खाद, बीच, कीटनाशक, खल, कपड़ा, गृहस्थी और किराना का सामान भी खरीदकर घर लौटता है। अब हाथ में दस हजार रुपए होने के बाद ट्रैक्टर में 55 लीटर डीजल डलवाने के बाद थोड़े पैसे बचते हैं। यह खाद्य सामग्री और अन्य चीजों की खरीद के लिए नाकाफी है।’ चौधरी कहते हैं, ‘प्रर्याप्त पैसे नहीं होने पर ट्रॉली घर खाली लौटती है। बहुत से किसानों के पास इतनी रकम नहीं होती कि वो दोबारा मंडी जाएं और जरुरी सामान खरीद के लिए ट्रॉली को फिर भाड़े पर ले।।’ रामसिंह चौधरी उज्जैन जिले की घटिया तहसील के तहत आने वाले विनायगा गांव के निवासी हैं। उनके पास करीब 100 बीघा (एकड़) जमीन है।
वहीं देवास में बागली तहसील के जटाशंकर गांव के निवासी जयदीप सिंह सोलंकी कहते हैं, ‘मंडी में भुगतान के लिए 5-6 दिन तो आम बात बन गई है। नोटबंदी से पहले तो हमें नकद भुगतान दिया जाता था। अब नोटबंदी के एक साल बाद व्यापारी हमें चैक देते हैं। चैक क्लियर होने में ही 15 से 20 का समय लग जाता है। बहुत सा समय तो हमारा बैंक में चला जाता है। इसमें सबसे ज्यादा समय जून-जुलाई और नवंबर-दिसंबर में लगता है, जब नकद की खासी जरुरत होती है। सामान खरीदना होता है, मजदूरों को भुगतान करना होता है। सरकार में बैठे लोग किसानों के समक्ष आने वाली परेशानियों को नहीं समझते हैं।’