पटना की सड़कों पर जब आते हैं तो एहसास होने लगता है कि बदलाव हुआ है। लेकिन बदलाव के साथ एक चाह भी है- और ज्यादा विकास की, और ज्यादा बेहतरी की।
बिहार का शहरीकरण कई बार अपनी खराब व्यवस्था की वजह से सवालों में रहता है। पटना फिर भी विकास की पटकथा लिख रहा है। पिछले कुछ सालों में कुछ अर्बन पब्लिक स्पेस ऐसे बन चुके हैं जो बिहार की नई पहचान हैं-बात चाहे चमकदार मॉल की हो, किसी प्रसिद्ध म्यूज़ियम की हो, या फिर तेज गानों के साथ चल रहे किसी वाइब्रेंट कैफ़े की।
पटना में इतना सब कुछ दिखता है, लेकिन फिर भी जब वोटरों से बात होती है तो विकास को लेकर मन में सवाल उतने ही हैं। एक सवाल युवाओं के मन में सबसे ज़्यादा गूंजता है: आज भी बिहार के नौजवानों को अपना घर छोड़कर बेंगलुरु, नोएडा या फिर चेन्नई क्यों भागना पड़ता है? फिर चाहे बात पढ़ाई की हो या नौकरी की—क्या ऐसा संभव नहीं कि बिहार में ही अपने परिवार के साथ रह सकें और यहीं उन्हें अच्छे पैसों पर एक बेहतरीन नौकरी मिल जाए? नौजवान बिहार की शिक्षा-व्यवस्था से भी परेशान हैं। बार-बार इस बात से खीझते हैं कि उनके सपनों के बीच में यह लाचार शिक्षा-व्यवस्था क्यों आ जाती है।
दिलचस्प बात यह है कि इस प्रकार के सवाल पटना की गलियारों में सिर्फ नीतीश कुमार के विरोधी ही नहीं उठा रहे, उनके समर्थक भी उठा रहे हैं। यहां भी कई ऐसे लोग सामने आए हैं जो बिहार में और बेहतर विकास और बदलाव की उम्मीद लगाए बैठे हैं, लेकिन उम्मीद की किरण उन्हें नीतीश कुमार में दिखाई दे रही है, न कि विरोधियों में।
इस चुनाव में प्रशांत किशोर की ‘जन सुराज’ ने भी राजनीति में एंट्री मारी है। कुछ हिस्सों में सक्रियता दिखती है। लेकिन नीतीश भी कुछ क्षेत्रों की सफलता को अपनी वापसी का पैमाना मान सकते हैं—फिर चाहे बात हो कानून-व्यवस्था बेहतर बनाने की, बिजली-सड़क-पुल-फ्लाईओवर निर्माण की, महिला सशक्तिकरण की, या फिर हाल में किए गए महिला रोजगार योजना के ऐलान की। नीतीश कुमार के लिए ये सब उनकी सफलता हो सकती हैं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि जमीन पर इनका व्यापक असर अब तक हर जगह नहीं पहुंच पाया है। यह भी कहा जा सकता है कि कुछ जातियां अभी भी असंतुष्ट हैं। यादवों के बीच मिला-जुला माहौल दिख रहा है-लोग यह तो मान रहे हैं कि नीतीश ने काम किया है, लेकिन उसका लाभ निचले स्तर तक पूरी तरह नहीं पहुंच पाया।
नीतीश के विरोधी माने जाने वाले तेजस्वी यादव इस बार पूरी ताकत के साथ बिहार चुनाव में उतरे ज़रूर हैं, लेकिन ‘यादव राज’ वाले नैरेटिव से उन्हें भी लड़ना है। प्रशांत किशोर की बात करें तो अभी भी युवाओं के मन में उन्हें लेकर संशय है। कोई उन्हें नया मानता है, कोई अनुभव की कमी देखता है। उनके लिए चुनौती यह भी है कि अगर नए नौजवान उनका ‘कोर वोटर बेस’ हैं, तो ज्यादातर तो इस समय बिहार से बाहर हैं, और त्योहार के समय सभी का वापस राज्य आ पाना मुश्किल लगता है।
जमीनी हकीकत ऐसी भी दिखाई देती है कि पटना में प्रशांत किशोर की पार्टी की मौजूदगी ज़रूर बड़ी है, लेकिन वह वैसा प्रभाव नहीं छोड़ पाई है जैसा किसी ज़माने में दिल्ली में अन्ना आंदोलन ने किया था। दूसरी तरफ, नीतीश कुमार के लिए अभी भी अलग-अलग वर्गों में समर्थन दिखाई देता है। इसके ऊपर नरेंद्र मोदी और बीजेपी का साथ होना भी मदद कर रहा है।
सरदार-जी बख्श कैफ़े पर 23 साल की अनुषा सिंह भी बिहार के पुराने दिनों को याद कर रही हैं। इस समय चेन्नई की एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर रही अनुषा कहती हैं, “मैंने नीतीश कुमार के राज में बदला हुआ बिहार देखा है। यह वह बिहार नहीं है जब मैं छोटी थी-फिर बात चाहे सड़कों की हो, इंफ्रास्ट्रक्चर की हो या बिजली की। लेकिन बिहार को टेक पार्क्स की जरूरत है, यहां बड़ी कंपनियां आनी चाहिए, नौकरी मिलनी चाहिए और बेहतर शिक्षा की जरूरत है। मैं चाहती हूं यही सरकार वापस आए, लेकिन और ज्यादा विकास की जरूरत है। हमने उस ज़माने की कहानियां सुनी हैं जब अपहरण होते थे, कानून-व्यवस्था कमजोर रहती थी।”
इसी तरह 24 साल की अंजलि तान्या, जो ओडिशा में आयुर्वेदिक डॉक्टर हैं, कहती हैं, “नीतीश ने महिलाओं को सशक्त बनाया है-नौकरी, आरक्षण और सुरक्षा दी है। प्रशांत किशोर को भी थोड़ा और समय देने की जरूरत है, हो सकता है बाद में उनका मौका आए।” पुणे की एक कॉरपोरेट कंपनी में काम करने वाली पूजा शर्मा मानती हैं, “मुझे नहीं लगता तेजस्वी यादव फिलहाल बिहार के बारे में गंभीरता से सोच रहे हैं। अगर उन्हें मुख्यमंत्री बनना है तो पहले राज्य के बारे में ठोस सोच दिखानी होगी। कुछ चीजें बदली हैं, लेकिन और बदलनी चाहिए। हमें IT पार्क की जरूरत है—सिर्फ सड़कें और बिल्डिंग से काम नहीं चलेगा। हम बदलाव चाहते हैं, विकास चाहते हैं।”
25 साल की नित्या सिंह कहती हैं कि अब नए चेहरे की जरूरत तो है, लेकिन आज भी हम लोग पेंशन बढ़ाने और सब्सिडी देने तक सीमित रह गए हैं। इससे बड़ा सोच नहीं पाते—विजन दिखाई नहीं दे रहा, सिर्फ डायरेक्ट कैश ट्रांसफर की बात हो रही है। हालांकि नित्या बिहार की सच्चाई भी जानती हैं, उनके मुताबिक बदलाव होना चाहिए, एक्सपेरिमेंट की दरकार है, लेकिन ये सब किसी दूसरे राज्य में तो हो सकता है, लेकिन बिहार में यह मुश्किल लगता है। 25 साल की शिवानी कुमारी मानती हैं कि बिहार को बदलाव की जरूरत है, लेकिन उन्हें यह भी लगता है कि अभी वह बदलाव आने वाला नहीं है। तेजस्वी पर भरोसा करना मुश्किल है, ‘जन सुराज’ को भी समय चाहिए,अभी उतनी स्वीकृति नहीं दिखती। ऐसे में कब और कैसे चेंज होगा, यह मुश्किल है, पर अभी तो ऐसा नहीं लगता। बेंगलुरु में इन्वेस्टमेंट बैंक में काम करने वाली एलिस वर्मा कहती हैं, “आज मेरी मां ने कहा कि यह बेंगलुरु नहीं है, इसलिए तुम ऐसे कपड़े नहीं पहन सकती। पिता कहते हैं कि अगर पटना की सड़कों पर निकलो तो भाई को साथ लेकर जाओ, वो मुझसे 7 साल छोटा है।”
ताज सिटी सेंटर मॉल में पहुंची पल्लवी रंजन कहती हैं कि उन्हें मोदी पर विश्वास है—अयोध्या, पुलवामा और इंफ्रास्ट्रक्चर का अच्छा निर्माण हुआ है। पल्लवी नीतीश को वोट देने की बात तो करती हैं, लेकिन कारण मोदी को मानती हैं। सेल्स गर्ल काजल कुमारी भी नीतीश सरकार को हटाना नहीं चाहतीं। उनके मुताबिक कई सुविधाएं मिली हैं, महिलाओं की स्थिति बेहतर हुई है। वह साइकिल से स्कूल जाती थीं, उन्हें यूनिफॉर्म भी मुफ्त में मिली।
पटना में ही थोड़ा आगे चलें तो, मरीन ड्राइव में माहौल बदलता है। फुलवारीशरीफ में नर्स के तौर पर काम कर रहे अमीर आलम कहते हैं, “असल बदलाव तभी होगा जब बिहार में शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था बदलेगी और गरीबों तक उसकी पहुंच बढ़ेगी। नीतीश ने सड़क और पुल बना दिए हैं-ठीक है, पर हमें नौकरी भी चाहिए। तेजस्वी नौकरी की बात कर रहे हैं।” इसी तरह एक नर्सिंग स्टूडेंट मोहम्मद अजहर आलम कहते हैं, “यह तो मैं भी जानता हूं कि हर घर में सरकारी नौकरी देना मुश्किल होगा, लेकिन अगर तेजस्वी कह रहे हैं तो कुछ तो करेंगे।”
