Punjab: इस साल अगस्त के महीने में जब कुलविंदर कौर पंजाब के फिरोजपुर में अपने नए घर के लिविंग रूम में एंट्री करती हैं तो सोफे पर बैठे हुए किसी ऐसे शख्स को देखा, जिसकी उन्हें उम्मीद नहीं थी कि वे फिर कभी उसे देखेंगे। कुलविंदर अपनी भावनाओं को काबू में रखने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन उनकी पांच साल की पोती अवनीत ने उन्हें तुरंत पहचान लिया और वे दादाजी मलकीत सिंह थे। उनका साल 2014 में बीमारी की वजह से निधन हो गया था।
जब से वह सिद्धू मूसेवाला की आदमकद कार्बन फाइबर मूर्ति बनाने के लिए फेमस हुए तब से पंजाब के लोग मोगा के इकबाल सिंह ने मलकीत के परिवार समेत राज्य भर के बाकी परिवारों के लिए भी ऐसा ही किया। आज मलकीत की एक आदमकद कार्बन फाइबर मूर्ति परिवार के लिविंग रूम के सोफे पर गर्व के साथ में रखी हुई है। वह हमेशा अपनी कुरकुरी प्रेस की हुई पंजाब पुलिस की वर्दी और झालर वाली पगड़ी पहने हुए रहता है। इसको बल ने 2016 में बंद कर दिया था। हालांकि, मलकीत कभी जवाब नहीं देता, लेकिन छोटी अवनीत अपने दिन की छोटी से छोटी बात उसके साथ शेयर करने में कभी नहीं चूकती।
मलकीत के बेटे सिंकदर सिंह ने कहा कि मुझे हमेशा इस बात का अफसोस रहा कि मेरी बेटी कभी अपने पिता से नहीं मिल पाएगी। अब मूर्ति की बदौलत वह आखिरकार जान गई है कि वे कैसे दिखते थे। जब मैं उसे हर दिन स्कूल जाने से पहले अपने दादाजी को अलविदा कहते हुए देखता हूं, तो मुझे लगता है कि यह मूर्ति लगवाने का मेरा फैसला सही था।
इकबाल ने अब तक बनाई 50 मूर्तियां
2010 से मूर्तियां बनाना शुरू करने वाले इकबाल सिंह कहते हैं कि उन्होंने अब तक करीब 50 आदमकद मूर्तियां बनाई हैं। पूर्व ऑयर पेंटर ने कहा कि मूसेवाला के परिवार ने मूसा गांव में अपने घर पर उनकी मूर्ति लगाने के बाद कई परिवारों ने सोशल मीडिया के जरिये मुझसे संपर्क किया और कहा कि वे भी अपने दिवंगत प्रियजनों की मूर्तियां बनवाना चाहते हैं।
मूर्ति पर कितनी आती है लागत
पंजाब भर में मुफ्त में दी जाने वाली इन मूर्तियों को बनाने के लिए इकबाल फोटो और हाईट व वेट का इस्तेमाल करते हैं। हर एक मूर्ति बनाने में लगभग एक महीने का टाइम लगता है और हर एक पर 95,000 से 1.5 लाख रुपये तक की लागत आती है। उनका कहना है कि जब उनकी देखभाल की बात आती है तो उनकी क्रिएनश को केवल बुनियादी धूल झाड़ने की जरूरत होती है। कई परिवार इन मूर्तियों को अपने खास मौकों पर शामिल करना चाहते हैं। इसलिए छोर हिलने-डुलने योग्य होते हैं ताकि वे मूर्ति के कपड़े आसानी से बदल सकें।
कांस्टेबल की पत्नी को मूर्ति से मिला नया जीवन
फिरोजपुर से 150 किलोमीटर दूर दौलतपुर के गांव में एक कॉस्टेबल की पत्नी को भी इन मूर्ति की वजह से नया जीवन मिला है। उनके बेटे करणवीर कुमार ने इकबाल से सोशल मीडिया के जरिये संपर्क किया था। उन्होंने कहा कि उनके पिता की मौत के बाद से उनकी मां गहरे सदमे में हैं। मेरे माता-पिता एक-दूसरे से प्यार करने लगे और उन्होंने शादी कर ली। उनकी मौत के बाद मेरी मां जीना भूल गई। लेकिन जब मैंने उनकी मूर्ति बनवाई, तो सब कुछ बदल गया। मूर्ति के आने के बाद में जसविंदर या तो इसे अपने पति की पुलिस की वर्दी पहनाती हैं या फिर खास मौकों पर कुर्ता-पायजामा पहनाती हैं।
करणवीर ने कहा, ‘ऐसा लगता है जैसे मेरे पिता एक बार फिर हमारी जिंदगी में वापस आ गए हैं। मेरी शादी में वे सभी रस्मों का हिस्सा थे। जब हम अपने छोटे भाई को छोड़ने दिल्ली एयरपोर्ट गए, तो वे व्हीलचेयर पर हमारे साथ आए, जो यूके जा रहा था। हाल ही में जब हम धार्मिक यात्रा पर गए थे, तो हम मूर्ति को साथ ले गए थे। मूर्ति को ले जाना आसान है। इसका वेट भी कुल 40 किलो है और इसे कार की अगली सीट पर सही तरीके से ले जाया जा सकता है।
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डीएसपी की मूर्ति बना रहे इकबाल
मूर्तिकार इकबाल लुधियाना के एक परिवार के लिए डीएसपी की मूर्ति बना रहे हैं। उन्होंने कहा कि अपनी पहली आदमकद मूर्ति पंजाब के शहीद भगत सिंह नगर जिले के महलों गांव की रहने वाली अनुरीत कौर दोसांझ के लिए बनाई थी। नवंबर 2022 में दिल का दौरा पड़ने से अपनी मां कुलजीत कौर के मरने के बाद उनकी मौत को स्वीकार न कर पाने के की वजह से अनुरीत ने इकबाल की मूसेवाला मूर्ति को देखने के बाद कई बार टेलीफोन के जरिये उनसे संपर्क करने की कोशिश की।
उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को फोन पर बताया , ‘उन्होंने मेरा आग्रह तब ही मान लिया था जब मैं उनसे व्यक्तिगत रूप से मिली और उनसे कहा, ‘मैनू मेरी मां बना के देयो (कृपया मेरे लिए मेरी मां बनाएं)’। मैंने इकबाल वीरजी (भाई) से कहा कि मैं चाहती हूं कि मूर्ति को नए सूट पहनाए जाएं जो मेरी मां ने अपने निधन से पहले सिले थे। मैं चाहती थी कि बाल लंबे हों, ताकि मैं उन्हें एक बन में बांध सकूं और मूर्ति को कोका और बालियां पहनाए जाएं , ठीक वैसे ही जैसे मां पहनती थीं।’
आज अनुरीत की जिंदगी उसकी मां के ईर्द-गिर्द घूमती है। चाहे सर्दियों में उसके कंधों पर शॉल लपेटने की बात हो चाहे उसके जन्मदिन पर केक काटना हो। इतना ही नहीं उन्होंने कहा कि तीज पर मैं उसके हाथों में मेहंदी लगाती थी। दिवाली पर वह मुझे पटाखे फोड़ते हुए देखती थी। अनुरीत ने कहा कि जब भी हमारे घर में कोई अच्छा खाना बनाता था तो सबसे पहले उसे ही परोसा जाता है। मेरे घर आने वाला हर व्यक्ति उसके पैर छूता है। जब मुझे उसकी बहुत याद आती है, तो मैं उसकी गोद में सिर रखकर रोती हूं।
अनुरीत की तरह ही संगरूर जिले के रामपुर गुज्जरान गांव के रहने वाले इमिग्रेशन कंसल्टेंट मनप्रीत सिंह ने भी इस साल जनवरी में अपनी मां कमलेश कौर को बीमारी के कारण खोने के बाद इकबाल की शरण ली। उन्होंने बताया कि उनकी मूर्ति उनके नए कमरे में रखी गई है। उन्होंने बताया कि उनकी 10 साल की बेटी तरनवीर कौर शुरू में अपनी दादी की मूर्ति के पास जाने से डरती थी, उन्होंने आगे कहा, ‘मेरी मां ने शादी के लिए कई सूट सिलवाए थे, लेकिन उन्हें पहनने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। जब मेरी बहन अब घर आती है, तो वह सबसे पहले हमारी मां के कमरे की ओर जाती है और घंटों तक मूर्ति के सामने अपने दिल की बात कहती है। मूर्ति हम सभी को ऐसा महसूस कराती है जैसे वह एक बार फिर हमारे जीवन में वापस आ गई है।’