अच्छे दिन के बाद देश बदलने के नारों की गूंज में बुंदेलखंड का किसान गुम-सा हो गया है। बुंदेलखंड में हालात न बदलने का ही नतीजा है कि सात दिन पूर्व ही कर्ज में डूबे एक युवा किसान ने आत्महत्या कर ली और एक ने बिजली के टावर पर चढ़कर खुदकुशी की कोशिश की।
टीकमगढ जिले के मोहनगढ थाना के ग्राम खाकरौन निवासी 26 वर्षीय लक्ष्मन पाल कर्ज न चुका पाने के कारण इस तरह हताश हुआ कि उसने खेत पर फांसी पर झूलकर आत्महत्या कर ली। 20 मई को हुई इस घटना में किसान का जो दर्द सामने आया वह शायद सरकारें आज तक नहीं समझ सकी हैं। मृतक के भाई गोविंददास का कहना है कि लक्ष्मण करीब डेढ लाख रुपए के कर्ज में दबा हुआ था। पिता भागीरथ की बीमारी और पारिवारिक काम के लिए उसने यह कर्ज लिया था। उम्मीदें डेढ़ एकड़ फसल पर थीं। जो सूखे की भेंट चढ़ गई। साहूकारों का कर्ज दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था। इस कारण वह दिल्ली मजदूरी करने चला गया था। पिता की तबीयत बिगड़ने पर वह उसे देखने आया था। बताया जा रहा है कि दिल्ली में भी इस बार मजदूरी की मांग में कमी आई है। इस कारण लक्ष्मण वहां भी भटकता ही रहा।

परिवार का भरण पोषण, पिता की बीमारी और साहूकारों के कर्ज के दबाब में लक्ष्मण इस तरह घिरा कि उसने आत्महत्या कर ली। यही हाल बुंदेलखंड के दूसरे इलाके के किसानों का है। दो हफ्ता पहले ही सागर जिले के सुरखी थाना के गांव समनापुर में पारिवारिक तंगी से आजिज महेश चढार नामक व्यक्ति ने हाइटेंशन लाइन के टावर पर चढ़कर आत्महत्या का प्रयास किया था। उसे किसी तरह बचा लिया गया था। महेश के अनुसार, उसके पास न तो राशनकार्ड है और ना ही जॉब कार्ड। जिस झोपड़ी में रहता था उसे चाचा ने छीन लिया। वहीं घर में बच्चों को खिलाने के लिए राशन नहीं। जब चारों बच्चों ने खाना मांगा तो उसके सामने आत्महत्या करने के सिवाय रास्ता नहीं था। इससे पहले अप्रैल माह में भी बुंदेलखंड के छतरपुर जिले में कर्ज से दबे दो किसानों ने आत्महत्या कर ली थी। 8 अप्रैल को छतरपुर जिले के लवकुशनगर थाना के ग्राम पटना में 10 बीघा के मालिक 58 वर्षीय बाबूलाल तिवारी ने खेत से लौटकर घर में जहर खा लिया था।

14 अप्रैल को बडामलहरा थाना के ग्राम चिरोदां में कर्ज से परेशान किसान इंद्रपाल घोस की पत्नी साधना फांसी पर झूल गई थी। इंद्रपाल पर साहूकारों का कर्ज था जिसे चुकाने के लिए पत्नी के गहने तक बेच दिए थे। टीकमगढ़ जिले में अभी तक 94 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। पिछले एक वर्ष की घटनाओं को देखा जाए तो करीब 50 किसान हताश होकर मौत को गले लगा चुके हैं। पहले ‘अच्छे दिन’ और अब ‘देश बदल रहा’ नारों की गूंज है। योजनाएं धरातल पर कहां हैं, इसे कोई ढूंढ़ने वाला नही है। किसानों की फसल खराब होती है तो मुआवजे को पाने के लिए अभी तक किसान दफ्तरों के चक्कर काट रहा है। कुछ ज्ञापन सौंप रहे हैं, पर सुनने वाला कोई नहीं। सरकारी आपाधापी में किसानो को भी अंधेरे के सिवा कुछ नहीं दिखता और जीवन का अंत करने के लिए मजबूर है।