देश में कोरोना वायरस महामारी के प्रकोप को नियंत्रित करने के लिए जब पहली बार लॉकडाउन लागू हुआ तब दिल्ली में रह रहे प्रवासी मजदूर हरिंदर कुमार (18) अपने कपड़े, मोबाइल चार्जर और एक कंबल लेकर यूपी के इटावा में स्थित अपने गांव में लौट आए। उन्हें अपने गांव तक पहुंचने मैं पूरा एक दिन लगा, जहां कुमार और उनके परिवार के चार सदस्यों ने अपनी दो बीघा जमीन पर गेहूं और धान उगाकर खुद को जिंदा रखा।
पिछले महीने बवाना इंडस्ट्रियल एरिया में सॉफ्ट ड्रिंक्स मैन्युफैक्चरिंग यूनिट से उनके मालिक का फोन आया और काम पर वापस लौटने के लिए कहा गया। इस बार वो बस से राष्ट्रीय राजधानी पहुंचे और उम्मीद थी कि यूनिट में 40 मजदूर मिलेंगे, मगर वहां सिर्फ चार श्रमिक मिले। एक सप्ताह बाद यूनिट भी बंद हो गई और हरिंदर ने दोबारा इटावा लौटने की योजना बनाई।
वो कहते हैं, ‘मैं हर महीने आठ हजार रुपए कमाता था। वहां मुझे जो एकमात्र काम लिया, वो प्रतिमाह तीन हजार रुपए के वेतन पर टेम्पो-ट्रकों में नालीदार बक्से लोड करना था। इतने कम वेतन पर कोई अपना खर्चा पूरा नहीं कर सकता।’
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बवाना इंडस्ट्रियल एरिया में करीब 16,000 कारखाने हैं। इनमें प्लास्टिक के दाने, कूलर और पंखे, साथ ही कैमिकल कारखाने हैं। अनलॉक होने के 15 दिन बाद, थोक बाजारों से कमजोर मांग और श्रम की कमी के बीच कारखानों को एक अभूतपूर्व चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। उद्योग सूत्रों ने बताया कि बड़ी संख्या में पंखे और कूलर बनाने वाली इकाइयां बंद हो गई हैं क्योंकि गर्मियों के महीने निकल गए, और इसी सीजन में वो पूरे वर्ष का राजस्व पाते थे।
बवाना में एक कूलर बनाने वाली यूनिट में वेल्डर उतपाल प्रमाणिक (43) ने बताया कि गर्मी के महीने लॉकडाउन में बीत गए और अब मानसून के साथ ही कूलर की मांग कम हो जाएगी। मगर वापस लौटना भीख मांगने से बेहतर है। इस यूनिट में अब रमानातुल्लाह (44) एक मात्र कर्मचारी हैं जहां पहले बीस लोग काम करते थे।