मनोज कुमार मिश्र

केंद्र की भाजपा सरकार के बहाने दिल्ली के उपराज्यपाल और अरविंद केजरीवाल की अगुआई वाली आम आदमी पार्टी (आप) सरकार के बीच का टकराव दोनों के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है। दोनों में मची एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में दिल्ली की जनता परेशान हो रही है।

11 मई, 2023 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने जो फैसला दिया, वही 1993 में विधानसभा बनने के बाद से ही होता रहा है। यानी दिल्ली के आला अधिकारियों की नियुक्ति और तबादला मुख्यमंत्री की सलाह पर ही उपराज्यपाल करते रहे हैं। दिल्ली केंद्रशासित प्रदेश है और दिल्ली का अपना अधिकारियों का कैडर नहीं है।

दिल्ली के आइएएस(एग्मु) कैडर के होते हैं और पीसीएस अधिकारी यानी दानिक्स (दिल्ली,अंडमान-निकोबार,लक्ष्यद्वीप, दमन और दीप, दादर और नगरहवेली सेवा) सभी केंद्र शासित प्रदेशों में तैनात होते हैं, इसलिए इनका नियत्रंण केंद्रीय गृह मंत्रालय करता है।

दिल्ली में प्रथम श्रेणी के अधिकारियों के नियुक्ति और तबादले का पूरा अधिकार दिल्ली की चुनी हुई सरकार को देने के कुछ दिन बाद 19 मई, 2023 को केंद्र सरकार ने अध्यादेश लाकर उसे पलट दिया। उसमें कहा गया है कि इन अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले के लिए राष्टीय राजधानी सेवा प्राधिकरण बनेगा। तीन सदस्यों के इस प्राधिकरण के प्रमुख दिल्ली के मुख्यमंत्री होंगे। उसके सचिव दिल्ली के मुख्य सचिव और सदस्य दिल्ली के प्रमुख सचिव(गृह) होंगे। फैसला बहुमत से होगा। अंतिम स्वीकृति दिल्ली के उपराज्यपाल से ली जाएगी।

इस अध्यादेश के खिलाफ आप समेत अनेक विपक्षी दल खुलकर आ गए हैं। आप फिर से सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी में है। वहीं केंद्र सरकार 11 मई के सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर कर चुकी है। दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार में टकराव तो शुरू से ही है। केंद्र में काबिज होने वाली कोई भी सरकार दिल्ली सरकार के अधिकार आसानी से बढ़ाने को तैयार नहीं हुई है।

दिल्ली सरकार ने नियम बनाकर दिल्ली नगर निगम के अधिकार कम करके उससे सीवर, डीटीसी, बड़ी सड़कें, बिजली, पानी, अग्निशमन सेवा, होम गार्ड इत्यादि को अपने पास ले लिया। दिल्ली में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित तक ने अपनी पार्टी की केंद्र सरकार में एक भी अधिक अधिकार नहीं ले पाई थीं।

वे चाहती थीं कि डीडीए दिल्ली सरकार को मिल जाए, जब वे सफल नहीं हुईं तो दिल्ली पुलिस को तीन हिस्सों में बांट कर थाने की और यातायात पुलिस दिल्ली सरकार के अधीन करवाना चाहती थीं लेकिन वे इसमें भी सफल नहीं हुईं। तब केंद्र सरकार के एक मंत्री ने कहा था दिल्ली सरकार के अधिकार नहीं बढ़ाए जा सकते।

दिल्ली पूरा राज्य नहीं बन सकती

अभी तो केंद्र और दिल्ली में अलग-अलग दलों की सरकार है। यह लगातार साबित हो रहा है कि जब भी केंद्र सरकार के अधिकार यानी उपराज्यपाल के अधिकार कम करने के प्रयास हो रहे हैं, केंद्र सरकार किसी न किसी तरह से उसे पलट रही है। जबकि इसी दिल्ली में इसी अधिकारों वाली दिल्ली सरकार ने सामंजस्य से वे सारे अधिकारों का उपयोग किया, जो सामान्य राज्यों को मिलते हैं। यह बार-बार साबित हुआ है कि जब भी टकराव हुआ है दिल्ली सरकार के अधिकार कम हुए हैं और जब भी सामंजस्य हुआ है, अधिकार बढ़े हैं।

दरअसल दिल्ली के अधिकारों की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इसलिए नहीं खत्म होगी क्योंकि अभी बहुत सारी चीजें तय होनी रह गई हैं। 2018 के संविधान पीठ ने अपने फैसले में दिल्ली की सरकार को मजबूती दी लेकिन यह कह कर कि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश ही रहेगा, राज्य नहीं बन सकता है, उसकी हद तय कर दी।

संसद ने 69 वें संशोधन के माध्यम से दिसंबर 1991 में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को संवैधानिक उपबंध (अनुच्छेद 239 एए और 239 एबी) के तहत सीमित अधिकारों वाली विधानसभा दी गई। केंद्र शासित प्रदेश को विधानसभा मिलने के कारण इसके अधिकारों की विस्तार से व्याख्या करने के लिए संसद ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम-1991 को बनाकर पास किया।

इसमें साफ कहा गया है कि दिल्ली व्यवहार में केंद्र शासित प्रदेश बना रहेगा। दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र कहा जाएगा और इसके प्रशासक को उपराज्यपाल कहा जाएगा। इसकी एक विधानसभा होगी।

विधानसभा गठन के उद्देश्य से उपराज्यपाल ने 6 अक्तूबर, 1993 को एक अधिसूचना जारी की, जिसमें राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र दिल्ली के दिल्ली के लिए पहली विधानसभा के गठन के लिए चुनावों की घोषणा की गई। दिसंबर 1993 में हुए चुनाव में भाजपा जीती। विधानसभा के पहले ही सत्र में 9 अगस्त,1994 को भाजपा की ओर से दिल्ली को राज्य का दर्जा देने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया।

दिल्ली को पूर्ण राज्य का आंदोलन चलाने वाली भाजपा की केंद्र में 1998 से 2004 तक सरकार रही। उस दौरान भाजपा नेता इस पर चुप्पी लगाए हुए थे। कांग्रेस के दबाव में और 2003 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में जनता को जबाब देने के लिए तब के गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने 18 अगस्त, 2003 को दिल्ली राज्य विधेयक (2003 विधेयक संख्या 68) को प्रस्तुत कर दिया।

उसमें भी नई दिल्ली नगर पालिका परिषद (एनडीएमसी) को प्रतावित शासन से अलग किया गया था और पुलिस व लोक प्रशासन को उपराज्यपाल के माध्यम से काम करवाने की व्यवस्था थी। उसे मंत्रालय की स्थायी समिति में विस्तार से अध्ययन के लिए भेजा गया। समिति के अध्यक्ष बाद में राष्ट्रपति बने प्रणव मुखर्जी थे। उस समिति की दो ही बैठक हो पाईं और लोकसभा भंग होने के साथ ही विधेयक भी इतिहास की वस्तु बन गया।

आप सरकार ने तो दिल्ली को राज्य बनवाने का अभियान हर स्तर पर चलाया। यह लगातार साबित होता जा रहा है कि टकराव से राजनीतिक लाभ तो उठाया जा सकता है न तो दिल्ली का भला किया जा सकता है और न ही दिल्ली के अधिकार बढ़ सकते हैं। दोनों दल दिल्ली के लिए गंभीर हैं तो उन्हें टकराव के बजाय तालमेल के ही रास्ते पर चलना होगा।