2016 में सुप्रीम कोर्ट ने देश के सभी सिनेमा घरों में फिल्में दिखाने से पहले राष्ट्रगान अनिवार्य कर दिया था। अदालत ने अपने इस आदेश के पीछे सन 1960 और 1970 के दशक का उदाहरण दिया था, क्योंकि उस समय भी ऐसा किया जाता था। हालांकि धीरे-धीरे यह चलन से बाहर हो गया था। हालांकि दो वर्ष बाद यानी जनवरी 2018 में अदालत ने अपने आदेश को संशोधित करते हुए कहा कि सिनेमा घरों में राष्ट्रगान बजाया जाना अनिवार्य नहीं है।
ये तो हुई दो वर्षों की बात, लेकिन क्या आप यह जानते हैं कि 60 के दशक में राष्ट्रगान को किसके कहने पर अनिवार्य किया गया था। दो बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके द्वारका प्रसाद मिश्र के कहने पर तत्कालीन भारत सरकार ने राष्ट्रगान को सिनेमा घरों में बजाया जाना अनिवार्य कर दिया था। मिश्र के बारे में कई ऐसी जानकारियां हैं जिन्हें बहुत कम लोग ही जानते हैं। पत्रकार दीपक तिवारी ने अपनी पुस्तक राजनीतिनामा मध्यप्रदेश में बताया है कि मिश्र भारत के उन गिने चुने नेताओं में थे जो मनोविज्ञान, राजनीति शास्त्र, वेद और पुराणों के बारे में अत्यधिक जानकारी रखते थे। वरिष्ठ पत्रकार और अभिनेत्री जया बच्चन के पिता तरुण कुमार भादुड़ी ने भी अपनी किताब ‘ऑफ दि रिकॉर्ड’ में इसका विस्तार से उल्लेख किया है। महात्मा गांधी की हत्या के बाद केंद्र सरकार में सरदार पटेल और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बीच मध्यस्थता भी मिश्र ने ही करवाई थी।
मिश्र एक सफल पत्रकार, संपादक, राजनेता और शिक्षाविद भी थे। उन्होंने फिल्म निर्माण में भी अपना हाथ आजमाया था। मध्यप्रदेश बनने से पहले जो अलग-अलग राज्य थे उनमें से एक था मध्यप्रांत, जिसे सेंट्रल प्रॉविंस भी कहा जाता था। मिश्र मध्यप्रदेश की राज्य सरकार में मंत्री और मुख्यमंत्री बनने से पहले इसी मध्यप्रांत के गृहमंत्री भी रह चुके थे। उस समय उनका प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मतभेद हो गया था। अपने 14 पन्नों के इस्तीफे में द्वारका प्रसाद मिश्र ने नेहरू पर कई आरोप लगाए थे। कांग्रेस छोड़ते समय उन्होंने भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि नेहरू की नीतियों के कारण एक दिन चीन और पाकिस्तान भारत पर हमला जरूर करेंगे। मिश्र इस बात से बहुत नाराज और दुखी थे कि भारत ने तिब्बत को चीन के हाथों सौंप दिया है।
नेहरू के सिद्धांतों का विरोध करते हुए कांग्रेस छोड़ने वाले द्वारका प्रसाद मिश्र पूरे एक युग यानि 12 वर्ष से ज्यादा समय तक पार्टी से बाहर रहे थे। इस दौरान सन 1956 से 1962 तक वे डॉक्टर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। कुलपति के रूप में अपने कार्यकाल के अंतिम वर्षों में उनका नेहरू जी के साथ एक बार मधुर संबंध हो गया था। उन्हें दोबारा कांग्रेस पार्टी में शामिल किया गया और वे 1963 से 1967 तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर रहे।
विजयाराजे के लिए कभी खड़े नहीं हुए: द्वारका प्रसाद मिश्र को राजे-रजवाड़े कभी नहीं भाते थे। इसकी बानगी पचमढ़ी में तब दिखी जब युवक कांग्रेस ने वहां एक सम्मेलन का आयोजन किया। यहां मिश्र यह बोल गए कि रजवाड़े कभी भी कांग्रेस के नहीं हो सकते, क्योंकि ये लोग लोकतंत्र विरोधी हैं। इनका भरोसा नहीं किया जा सकता है। विजयाराजे सिंधिया ने अपनी आत्मकथा ‘प्रिंसेस, दि ऑटोबायोग्राफी ऑफ दि डॉवेजर महारानी ऑफ ग्वालियर’ में इसका उल्लेख किया है। जिस समय मिश्र यह सब कह रहे थे उस समय महारानी सम्मेलन की सबसे आगे की सीट पर बैठी थीं। सबकी निगाहें उन पर केंद्रित होने लगीं। बकौल विजयाराजे उस समय वो मजाक का केंद्र बन गई थीं। उन्होंने खुद को काफी अपमानित महसूस किया था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उसी वक्त उन्होंने यह तय कर लिया था कि इस टिप्पणी को वो हवा में नहीं जाने देंगी। इससे राजमाता और द्वारका प्रसाद मिश्र के बीच विवाद काफी बढ़ गया था।
मिश्र हमेशा अपने स्थान से खड़े होकर महिलाओं का सम्मानपूर्वक स्वागत करते थे। लेकिन विजयाराजे सिंधिया से विवाद होने के बाद उन्होंने तय कर लिया था कि उनके आगे वो खड़े नहीं होंगे। एक बार विजयाराजे भोपाल में उनसे मिलने उनके कार्यालय पहुंचीं तो मिश्र अपनी कुर्सी से उठकर दूसरे कमरे में चले गए। जैसे ही सिंधिया अंदर आईं तो उन्हें खाली कुर्सी दिखाई दी और वो आगंतुकों के लिए तय कुर्सी पर बैठ गईं। तभी मुख्यमंत्री वापस कैबिन में दाखिल हुए तो अब खड़ा होने की बारी राजमाता की आई। ऐसे ही बढ़ते विवादों के चलते राजमाता सिधिंया ने मध्यप्रदेश की द्वारका प्रसाद मिश्र सरकार को गिराकर संविद सरकार बनवा दी थी।