उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में सपा और कांगे्रस का गठबंधन था। कुल मिलाकर तीन बड़े दल सपा-कांगे्रस, बसपा और भाजपा गठबंधन मैदान में थे। इस बार मुकाबले बहुकोणीय होने के संकेत साफ दिख रहे हैं। सपा और बसपा दोनों ने ही किसी बड़े दल से गठबंधन न करने की घोषणा की है। नए खिलाड़ी के तौर पर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी जोर आजमाईश करेगी। तेलंगाना की एआइएमआइएम भी बिहार की चुनावी सफलता के बाद उत्तर प्रदेश में उम्मीदवार उतारने को तत्पर है। कांगे्रस ने भी प्रियंका गांधी के बूते अकेले लड़ने की रणनीति बनाई है।

अखिलेश यादव ने संकेत दिए हैं कि वे छोटे दलों के साथ गठबंधन करेंगे। संकेत अभी महान दल और रालोद के साथ तालमेल के ही हैं। चंद्रशेखर आजाद की भीम आर्मी, शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी, ओवैसी की एमआइएम अभी गठबंधन के फेर में हैं। ओमप्रकाश राजभर की सुहेल देव भाजपा ने इन सभी को गच्चा दे दिया। पिछले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उन्होंने योगी मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर भाजपा से अपना गठबंधन तोड़ लिया था। वे सपा और छोटे दलों सभी से तालमेल की कोशिश में जुटे थे। पर अब भाजपा उन पर डोरे डालने में सफल हो गई दिख रही है। इससे ओवैसी, चंद्रशेखर आजाद और शिवपाल यादव सकते में हैं। भाजपा ने गठबंधन के मामले में नाराज सहयोगी अपना दल की अनुप्रिया पटेल और निषाद पार्टी को मना लिया है। राजभर के साथ तालमेल हुआ तो कुल मिलाकर भाजपा के तीन सहयोगी हो जाएंगे। पिछले विधानसभा चुनाव में भी ये सभी उसके साथ थे।

चुनावी तैयारी का जहां तक सवाल है, भाजपा अभी तक अपने विरोधियों पर भारी नजर आती है। हालांकि अखिलेश यादव भी अपने चुनाव अभियान की दशहरे से पहले कानपुर से परिवर्तन यात्रा के जरिए औपचारिक शुरुआत कर चुके हैं। भीड़ को अगर मापदंड बनाएं तो साफ दिख रहा है कि चुनाव में भाजपा को टक्कर देने की हैसियत में सपा ही होगी। माना कि बसपा के पास भी उसका ठोस दलित वोट बैंक है पर प्रचार अभियान के मामले में बसपा अभी ज्यादा आक्रामक नहीं दिख रही। मायावती ने अपनी ताकत ब्राह्मण मतदाताओं को लुभाने में लगा रखी है। लेकिन बसपा की दुविधा यह है कि सत्तारूढ़ भाजपा से ज्यादा हमलावर वह कांगे्रस के प्रति नजर आ रही है। साफ है कि बसपा को यह डर सता रहा है कि कहीं उनके वोट बैंक में प्रियंका गांधी सेंध न लगा दें।

अखिलेश यादव ने सहारनपुर में भी चौधरी यशपाल सिंह के बेटे की तरफ से आयोजित एक गुर्जर रैली को संबोधित कर गुर्जर सम्राट मिहिर भोज की जाति को लेकर दादरी में भाजपा की तरफ से उठाए गए विवाद को सियासी मुद्दा बनाया। चुनाव सिर पर देख भाजपा ने मुजफ्फरनगर के गुर्जर नेता वीरेंद्र सिंह को एमएलसी बनाया है। पर गुर्जर बिरादरी में सेंध के लिए अखिलेश भी पूरी ताकत से जुटे हैं। हर पार्टी जातीय सम्मेलनों का सहारा तो ले ही रही है, किसानों के मामले को भी मुद्दा बना रही है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने अब गन्ना किसानों की नाराजगी को देखते हुए गन्ने के खरीद मूल्य में मामूली बढ़ोतरी का एलान किया है। पर गन्ना किसान उतने भर से संतुष्ट नहीं लग रहे। किसानों में सरकार के प्रति जो गुस्सा है, उसका असर मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़ और आगरा मंडलों की कम से कम सवा सौ विधानसभा सीटों पर प्रभाव जरूर डालेगा। ग्रामीण इलाकों में भाजपा नेता जाने से डर रहे हैं। लखीमपुर कांड ने विरोधियों को अच्छा मुद्दा थमा दिया है। मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक भी बागपत के रहने वाले हैं। वे केंद्र और उत्तर प्रदेश की सरकारों को लगातार आगाह कर रहे हैं कि किसानों की नाराजगी दूर न की तो चुनाव में नुकसान उठाना पड़ेगा।