बिहार के नए पुलिस महानिदेशक के एस द्विवेदी ने पदभार संभालते ही राज्य के पुलिस प्रशासन में भारी फेरबदल करने की तैयारी कर ली है। जब एक मार्च को राज्य सरकार ने नए डीजीपी के तौर पर के एस द्विवेदी के नाम का एलान किया तब सियासी गलियारों में द्विवेदी पर दंगाई होने के आरोप लगाए गए। इसके जवाब में सरकार को मीडिया के सामने अपना पक्ष रखना पड़ा। दरअसल, 1989 में जब के एस द्विवेदी भागलपुर के एसपी पद पर तैनात थे तब भागलपुर में भीषण दंगा हुआ था। इस दंगे में करीब एक हजार लोगों की जान चली गई थी। तब आरोप लगे थे कि तत्कालीन एसपी के एस द्विवेदी ने न सिर्फ दंगों पर काबू पाने में कोताही बरती थी बल्कि दंगा भड़काने में भी अहम भूमिका निभाई थी।
इन आरोपों की जांच के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री सत्येन्द्र नारायण सिन्हा ने हाईकोर्ट के तीन जजों की एक जांच कमेटी बनाई थी। इस कमेटी के दो सदस्यों ने संयुक्त रिपोर्ट में एसपी द्विवेदी के खिलाफ टिप्पणी की थी जबकि जांच कमेटी के अध्यक्ष ने अपनी रिपोर्ट में एसपी को क्लीनचिट दी थी। एसपी द्विवेदी के अलावा कुछ अन्य पुलिसकर्मियों पर भी जांच कमेटी ने प्रतिकूल टिप्पणी की थी। कमेटी की टिप्पणियों के खिलाफ सभी पुलिसकर्मियों ने पटना हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की थी। बाद में 1996 में हाईकोर्ट ने कमेटी की रिपोर्ट से प्रतिकूल टिप्पणियों को हटाने का निर्देश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने भी पटना हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था। इसके बाद 1998 से ही के एस द्विवेदी को राज्य सरकार नियमित तौर पर प्रमोशन और अन्य सेवा लाभ देती आ रही है।
क्या कहती है जांच कमेटी की रिपोर्ट? दिल्ली के वकील वारिशा फरासत और अहमदाबाद की सोशल रिसर्चर प्रीता झा ने अपनी किताब ‘स्पलिन्टर्ड जस्टिस: लिविंग द हॉरर ऑफ मास कम्यूनल वॉयलेन्स इन भागलपुर एंड गुजरात’ में भागलपुर दंगे की जांच कमेटी की टिप्पणियों का शामिल किया है, जिसमें कहा गया है कि भागलपुर दंगे के कई चशमदीदों ने पुलिस अधिकारियों को दंगाइयों को उकसाते हुए सुना था। फरासत ने जांच कमेटी की टिप्पणियों के आधार पर लिखा है कि दंगे पर काबू पाने के लिए पहुंची सेना और सीमा सुरक्षा बल को पुलिस ने गुमराह किया था और गलत सूचना दी थी कि दंगा प्रभावित किस गांव में जाना है। पुलिस ने सेना और बीएसएफ को ऐसे गांव में दंगा नियंत्रण के लिए भेज दिया था जहां दंगे हुए ही नहीं थे और जब तक अत्यधिक दंगा प्रभावित गांवे में सेना की टुकड़ी पहुंचती तब तक काफी देर हो चुकी थी। किताब में लिखा गया है कि जांच कमेटी को कई दंगा पीड़ितों ने बताया था कि तत्कालीन एसएसपी के एस द्विवेदी ने हिन्दू उन्मादी भीड़ को भड़काने में मुख्य भूमिका निभाई थी। हालांकि, हाईकोर्ट ने इन आरोपों को बाद में खारिज कर दिया।
किताब में नाथनगर के नूरपुर मोहल्ले की 65 वर्षीय बीवी फरीदा के हवाले से लिखा गया है कि 25 अक्टूबर, 1989 को इंस्पेक्टर केके सिंह न केवल दंगाइयों को निर्देश दे रहा था बल्कि मुस्लिम घरों को लूट लेने और मुसलमानों को जान से मार देने को भी कह रहा था। इस दंगे में बीवी फरीदा के 20 साल के बेटे को दंगाइयों ने मार दिया था जबकि दूसरे बेटे को गंभीर रूप से जख्मी कर दिया था।
जांच कमेटी की रिपोर्ट में दंगा पीड़ितों के बयानों के मद्देनजर आरोप लगाए गए हैं कि पुलिस अधिकारियों ने दंगाइयों को पुलिस की वर्दी दी थी और मुस्लिमों को मारने के लिए उकसाया भी था। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भागलपुर के तेरह माइल नामक स्थान पर धार्मिक आधार पर पुलिसवाले दो भागों में बंट गए थे। तब मुस्लिम इंस्पेक्टर मोहम्मद रहमान करीब दो दर्जन पुलिसकर्मियों की एक टुकड़ी का नेतृत्व करते हुए नूरपुर इलाके में कैम्प करने पहुंच गए थे। जांच कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक इसी वजह से नूरपुर की अधिकांश मुस्लिम आबादी दंगे की चपेट में आने से बच गई। किताब में लिखा गया है कि जांच कमेटी के सामने पेश हुई भागलपुर शहर की शाहबानो ने दर्दनाक हालात का मंजर बयां करते हुए कहा था कि जब पुलिस निगरानी कर रही थी तभी दंगाई उसके घर में घुसे थे। बतौर शाहबानो एसएचओ भीड़ को निर्देश दे रहा था कि एक भी मुस्लिम जिंदा ना बच पाए। शाहबानो ने बताया था कि दंगे में जो भी लोग बच गए थे और थाने में जाकर शरण ले रखी थी, उस पर पुलिसवाले ना सिर्फ चीखे-चिल्लाए थे बल्कि उन्हें एक गाड़ी में उठवाकर मारवाड़ी स्कूल के राहत शिविर में फेंकवा दिया था। इस दंगे में शाहबानो की मां और दादी को बुद्धनाथ मंदिर चौक (कोतवाली थाने से आधे किलोमीटर दूर) पर घसीटकर लाया गया था और मार दिया गया था। शाहबानो के 75 साल के नाना को खाट में बांधकर घर में ही जिंदा जला दिया गया था और लाश को गंगा में फेंक दिया गया था।
क्या कहते हैं के एस द्विवेदी? इस बीच, दंगाई होने के आरोपों को खारिज करते हुए के एस द्विवेदी ने जनसत्ता.कॉम से कहा कि भागलपुर दंगे की जांच कमेटी की एक ओपिनियन को पटना हाई कोर्ट 1996 में और सुप्रीम कोर्ट 1998 में खारिज कर चुका है। इसी फैसले को आधार बनाकर राज्य सरकार ने उनका नियमित प्रोमोशन किया और उत्कृष्ट सेवा के लिए पुरस्कृत भी किया है।
क्या कहती है राज्य सरकार? इधर, राज्य के गृह सचिव आमिर सुबहानी ने भी मीडिया में यह बयान दिया है कि के एस द्विवेदी बेदाग हैं। नए डीजीपी पर भागलपुर दंगों को लेकर लगनेवाले तमाम आरोपों को गृह सचिव ने सिरे से खारिज कर दिया है और भागलपुर दंगा जांच समिति के अध्यक्ष की रिपोर्ट और पटना हाईकोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए उन्हें ना सिर्फ क्लीन चिट करार दिया है बल्कि पिछले कई सालों से उन्हें मिलने वाले नियमित प्रोन्नतियों और सेवा लाभ का भी विवरण दिया है।
कौन हैं के एस द्विवेदी? बता दें कि केएस द्विवेदी 1984 बैच के बिहार कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं। इनका पूरा नाम कृपास्वरूप द्विवेदी है। इनके आईपीएस मित्र इन्हें प्यार से कैस कहकर भी पुकारते हैं। ये उत्तर प्रदेश के औरैया के मूल निवासी हैं। इनका जन्म 1 फरवरी 1959 को हुआ है। इनके पिता नामी वैद्य थे। द्विवेदी राज्यपाल के एडीसी के अलावा सासाराम, भागलपुर, कटिहार, मधेपुरा और मुजफ्फरपुर के एसपी रह चुके हैं। वह केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर सीआरपीएफ में भी अहम ओहदे पर रहे। 2008 में केंद्र से वापसी होने पर उन्हें आईजी ऑपरेशंस बनाया गया था। आईजी ऑपरेशन के पद पर रहते हुए इन्होंने नक्सलियों की नकेल भी कसी है। उत्कृष्ट योगदान के लिए इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिल चुका है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी उत्कृष्ट काम के लिए इन्हें सम्मानित किया था। डीजीपी बनने से पहले ये डीजी ट्रेनिंग के पद पर तैनात थे। 28 फरवरी को डीजीपी पीके ठाकुर के रिटायर होने के बाद एक मार्च से इन्हें डीजीपी बनाया गया है। ये 31 जनवरी 2019 तक बिहार के डीजीपी रहेंगे फिर रिटायर हो जाएंगे।
किन हालात में द्विवेदी की हुई थी पोस्टिंग? 1989 में जिन परिस्थितियों में के एस द्विवेदी की तैनाती भागलपुर के एसपी के पद पर हुई थी वह काफी चुनौतीपूर्ण थी। उस वक्त सिल्क नगरी में अपराध चरम पर था। कांग्रेस से संबंध रखने वाले असामाजिक तत्वों ने एक डॉक्टर की बेटी को दिनदहाड़े अपहरण कर लिया था। उस वक्त बिहार के मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद थे लेकिन भागलपुर की इस घटना की वजह से उन्हें कुर्सी गंवानी पड़ी थी। आजाद के बाद सीएम बने सत्येन्द्र नारायण सिन्हा ने भागलपुर की स्थिति संभालने के लिए केएस द्विवेदी की पोस्टिंग यहां की थी। पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक उस वक्त यहां बरारी इलाके का शातिर समुआ मियां गिरोह सक्रिय था। इसी गिरोह पर वकील अशोक सिंह की हत्या का आरोप था। बरारी के हरे राम मिश्रा को भी स्टेशन चौक से खदेड़कर मारने की कोशिश की गई थी। इससे भी जघन्य कांड हुआ था। गिरोह के दुर्दांत अपराधियों ने 25 साल की लड़की समिया के दोनों स्तन काट डाले थे। प्राइवेट पार्ट में भी छुरा भोंककर जान ले ली थी। यह घटना 22 जुलाई 1989 की मोजाहिदपुर थाना इलाके की है।
पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक 28 जुलाई 1989 को यह गिरोह चंपा नाला पुल के नजदीक रेलवे सतपुलिया पर समुआ समेत डेढ़ दर्जन बदमाश बड़ी वारदात को अंजाम देने जुटे थे। इसकी भनक पा एसपी द्विवेदी ने अपराधियों की घेरेबंदी की मगर बदमाशों ने पुलिस पर गोलियां दागनी शुरू कर दी। जवाबी कार्रवाई में पुलिस ने समुआ समेत आठ बदमाशों को मौके पर ही ढेर कर दिया। तब शहर के दोनों समुदाय के अमन पसंद लोगों ने एसपी द्विवेदी को ललित होटल में सम्मानित किया था। लोगों को लगने लगा था कि अब भागलपुर शांत हो जाएगा मगर शातिर गुंडों के दूसरे गिरोह इनायतुल्ला अंसारी और सल्लन मियां और इनके राजनैतिक आकाओं ने मिलकर शहर को दंगे की आग में झोंक दिया। भागलपुर का यह दंगा शहर पर काला धब्बा है। हालांकि, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी दंगों के दौरान भागलपुर पहुंचे थे तब एसपी द्विवेदी के तबादले पर रोक लगा दी थी।
भागलपुर के दंगा पीड़ित परिवारों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता फारुक अली ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा, कोर्ट ने भले ही द्विवेदी को क्लीन चिट दे दी हो लेकिन क्या वो इस बात से इनकार कर सकते हैं कि 1989 में भागलपुर दंगों के दौरान वो यहां के एसपी नहीं थे। डीजीपी के पद पर उनकी नियुक्ति भले ही कानूनन वैध हो मगर हमारा मानना है कि उनके नेतृत्व में बेहतर पोलिसिंग होती तो सैकड़ों की जान बचाई जा सकती थी। इधर, एक पूर्व डीजीपी ने कहा कि राजद-कांग्रेस के शासनकाल में द्विवेदी की तैनाती बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। उन्होंने कहा कि द्विवेदी के आईजी ऑपरेशंस रहते कटिहार से बड़े नक्सली नेता का गिरफ्तारी इनके लिए बड़ी उपलब्धि रही है।