बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस नेता शक्ति सिंह गोहिल पर पार्टी में बहुत ही चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी है। राज्य में कांग्रेस पिछले तीन दशक से सत्ता से बाहर है। ऐसे में शक्ति सिंह गोहिल को बिहार की जिम्मेदारी देने के पीछे दो कारण हैं।

पहला, गुजरात से आने वाले वरिष्ठ नेता शक्ति सिंह गोहिल नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले गुजरात में कई राजनीतिक लड़ाई लड़ चुके हैं। इसके अलावा वह उन गिने चुने नेताओं में शामिल हैं जिन्हें अहमद पटेल के साथ ही राहुल गांधी का भरोसा हासिल है। अपने तीन दशक के राजनीतिक करियर में, यह पहला मौका है जब गोहिल अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की तरफ से प्रमुख के रूप में राज्य के चुनाव की देखरेख कर रहे हैं।

महागठबंधन में 70 सीटों को सुरक्षित करने के लिए कांग्रेस द्वारा की गई कड़ी सौदेबाजी में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। बिहार में पार्टी ने साल 2015 में 41 सीटों के मुकाबले बड़ी छलांग लगाई है। गुजरात की राजनीति में दिग्गज माने जाने वाले, गोहिल  पहली बार 2014 में राष्ट्रीय स्तर पर सामने आए थे। उस समय पार्टी ने उन्हें प्रवक्ता बनाया था।

उन्हें 2018 में बिहार के प्रभारी के रूप में पदोन्नत किया गया। इस साल की शुरुआत में दिल्ली का अतिरिक्त प्रभार दिया गया था।  गोहिल इसी साल जून में राज्यसभा सांसद भी बने। अक्सर अहमद पटेल का “दाहिना हाथ” कहे जाने वाले, गोहिल 2017 के राज्यसभा चुनाव में उनके पोलिंग एजेंट थे। पटेल ने यह चुनाव जीत कर भाजपा को पटखनी दी थी।

गोहिल ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1980 के दशक में कॉलेज में रहते हुए की थी। 1980 के दशक के मध्य में, वह एक युवा कांग्रेस के पदाधिकारी थे। उसी समय एक राष्ट्रीय समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की नजर उन पर पड़ी थी।

उन्होंने 1990 में 30 साल की उम्र में गुजरात में भावनगर दक्षिण विधानसभा सीट जीती, और मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल के नेतृत्व में 32 साल की उम्र में स्वास्थ्य राज्य मंत्री बने। वह तब गुजरात के इतिहास में सबसे कम उम्र के मंत्री थे।

हालांकि दो साल बाद गोहिल ने मंत्री और विधायक पद से इस्तीफा देकर सबको चौंका दिया था? उन्होंने यह कदम भावनगर के लिए एक मेडिकल कॉलेज की मांग को लेकर उठाया था। बाद में मेडिकल कॉलेज आवंटित किया गया और गोहिल ने 1995 में फिर से सीट जीती। गोहिल ने 1998 का चुनाव नहीं लड़ा और 2002 में वह हार गए।

2007 के अगले चुनाव में, वह भावनगर से विधानसभा में लौटे और मोदी के सबसे मुखर आलोचकों में से एक के रूप में उभरे, उन्हें विपक्ष का नेता बनाया गया। हालांकि, गोहिल 2012 के विधानसभा चुनाव हार गए। उसके बाद 2017 में अब्दसा सीट से उपचुनाव में भी उन्हें जीत नहीं मिले। इसके बाद से गोहिल राष्ट्रीय राजनीति पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।