पैमाना बेमिसाल
सत्ता आने की आहट ही जोश बढ़ा देती है। कम से कम राजस्थान के कांग्रेसियों का तो यही हाल है। पार्टी ने हर विधानसभा क्षेत्र में मेरा बूथ-मेरा गौरव अभियान चला रखा है। पर यह कार्यक्रम टिकट के दावेदारों के दंगल के मैदान बन गए हैं। हर कार्यक्रम में टिकट के दावेदारों की आपसी रस्साकशी जूतमपैजार में बदल जाती है। चूंकि सूबे में चुनाव का परिणाम हर बार अलग होता है। जो सत्ता में हो वह बेदखल हो जाता है और जो विपक्ष में हो वह सत्ता पा जाता है। इस फॉर्मूले के हिसाब से भी बारी इस बार कांग्रेस की है। ऊपर से लोकसभा की दो व विधानसभा की एक सीट के पिछले दिनों हुए उपचुनाव ने भाजपा की जिस अंदाज में लुटिया डुबोई उससे कांग्रेसी खेमे का उत्साह दोगुना हो गया। बहरहाल, कांग्रेसियों की जूतमपैजार भी भाजपाइयों को राहत नहीं दे रही। वे खुद कहने लगे हैं कि जूतमपैजार का संकेत समझ लेना चाहिए। कांग्रेस की सत्ता में वापसी के आसार हैं। सूबेदार सचिन पायलट ने मेरा बूथ-मेरा गौरव अभियान सोच-समझ कर चलाया है। इससे टिकट का हर दावेदार अपने इलाके में अपनी दमदारी दिखा रहा है। कार्यक्रमों में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के अलावा केंद्रीय पदाधिकारी भी शिरकत कर रहे हैं। भाजपा के दुर्ग माने जाने वाले जयपुर की सभी आठों विधानसभा सीटों के अभियान में भी तनातनी साफ दिखी। यहां टिकट के दावेदारों ने नया तरीका अपनाया। अपने समर्थकों को हर दावेदार ने अपने नाम वाली टी-शर्ट पहना कर भेजा। सिविल लाइन और मालवीय नगर की सीटों पर बवाल ज्यादा दिखा। प्रताप सिंह खाचरियावास और अर्चना शर्मा जैसे कद्दावर यहां दावेदार जो ठहरे। कांग्रेस के नेताओं के तर्क देखिए। फरमा रहे हैं कि जब तक पार्टी के आयोजन अखाड़ों में तब्दील नहीं होते, कार्यकर्ताओं को मजा ही नहीं आता।
रिश्तों की सियासत
सियासत में जरूरी नहीं कि जो एक-दूसरे के सामने मोर्चाबंदी करते दिखें वे वास्तव में भी कोई बैर-भाव रखें। उत्तराखंड के मौजूदा और पूर्व मुख्यमंत्रियों के रिश्तों को आजकल इसी भाव से आंका जा रहा है। त्रिवेंद्र सिंह रावत और हरीश रावत में निजी तौर पर छन रही है तो डाह करने वालों को दोनों का राजपूत होना इसकी वजह लग रहा है। दरअसल कांग्रेस के सूबेदार प्रीतम सिंह अपना धर्म निभा रहे हंै। त्रिवेंद्र सिंह रावत और उनकी सरकार को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं। सरकार के खिलाफ धरने-प्रदर्शन भी खूब कर रहे हैं। पर हरीश रावत ने अपने घर पर आम की दावत का आयोजन किया तो सियासी समीकरणों को ताक पर रख त्रिवेंद्र सिंह रावत भी जा पहुंचे। यह बात अलग है कि हरीश रावत के घर त्रिवेंद्र सिंह रावत का पहुंचना कांग्रेसियों को ही नहीं भाजपा के सूबेदार अजय भट्ट को भी नागवार गुजरा। अजय भट्ट तो अपना दर्द छिपा भी नहीं पाए। अतीत में झांकने लगे और याद दिलाया कि हरीश रावत ने भाजपा को तोड़ने की कोशिश की थी। इतना ही नहीं, वे प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष के बारे में अमर्यादित टिप्पणियां भी करने से बाज नहीं आते। फिर भी भाजपा के नेता उनकी दावत में शिरकत कर ठहाके लगाएं तो इससे कार्यकर्ताओं में तो गलत संदेश ही जाता है। रावत युगल की हंसी-ठिठोली से विजय बहुगुणा, सतपाल महाराज, सुबोध उनियाल, यशपाल आर्य और हरक सिंह रावत सभी तो नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं। पहले कांग्रेसी थे तो क्या अब तो ये सभी भाजपाई ठहरे। अंदर की बात तो यह है कि दो विरोधियों की इस दोस्ती के पीछे असली भूमिका मंत्री मदन कौशिक की बताई जा रही है। जो हरिद्वार से विधायक हैं और पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपाई रमेश पोखरियाल निशंक से ज्यादा हमदर्दी कांग्रेसी हरीश रावत की पत्नी रेणुका रावत के प्रति जता कर सुर्खियों में आए थे।
सयाने नीतीश
बिहार में आंख-मिचौली चल रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिर सयाने साबित हो रहे हैं। भाजपा उन्हें झटका देने की रणनीति अपना रही थी तो नीतीश ने भी पैतरे दिखा भाजपाइयों को धरातल पर ला पटका। गुरुवार को अमित शाह ने पटना में नीतीश के साथ डिनर तो किया ही, उनके साथ पार्टी के रिश्तों पर गर्व करते भी नजर आए। कहना पड़ा कि लोकसभा चुनाव दोनों पार्टियां मिलकर लड़ेंगी। नीतीश उनके साथ हैं लिहाजा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मिलकर सूबे की सभी चालीस सीटें जीत लेंगे। पर यही हकीकत होती तो जनता दल (एकी) की तरफ से 2009 के फॉर्मूले के हिसाब से सीटों के बंटवारे की मांग क्यों उठती? तब 25 सीटों पर जद (एकी) और 15 पर भाजपा के उम्मीदवार मैदान में उतरे थे। लेकिन 2014 में मोदी की आंधी और बहुकोणीय मुकाबलों के चलते भाजपा और उसके सहयोगी मिलकर 32 सीटें जीत गए थे। पासवान और उपेंद्र कुशवाहा के साथ रहते भाजपा नीतीश की 25 सीटों की मांग को कतई पूरा करने वाली नहीं। पर लालू के साथ जाने की संभावना को जीवित रख नीतीश ने फिलहाल इतना भरोसा तो ले ही लिया है। बताते हैं कि जद (एकी) किसी भी सूरत में भाजपा से कम सीटों पर नहीं लड़ेगी। इन दिनों सूबे का दौरा कर अपनी जमीन और जनाधार का आकलन भी कर रहे हैं नीतीश। शराबबंदी के फायदे गिनाना और बाल विवाह व दहेज प्रथा का विरोध करना घोषित मकसद है। यह बात अलग है कि वे वैभव वाले विवाह समारोह में शामिल होने से भी परहेज नहीं कर रहे। हां, दो नावों पर सवारी करना मजबूरी है। राजद की सियासी स्थिति चाहे जितनी मजबूत हो पर परिवार के झगड़े का सड़क पर आना सुखद संकेत तो किसी भी नजरिए से नहीं माना जा रहा। ऊपर से लालू का जेल से बाहर न आ पाना और खराब सेहत भी नीतीश की आशंका को बढ़ा रही है। लिहाजा भाजपा के साथ अपने रिश्तों की रस्सी को वे खींच तो जरूर रहे हैं पर सीमा का पूरा खयाल है कि कहीं रस्सी टूट न जाए।
(प्रस्तुति : अनिल बंसल)