पायलट गच्चा खा गए। गहलोत से उलझने से पहले उनके सियासी पैंतरों को जाना समझा होता तो ऐसी हड़बड़ी कभी न करते। मुख्यमंत्री पद की शर्त रखने का यह सही वक्त नहीं था। चुनाव नतीजों के बाद जब अशोक गहलोत के नाम पर रजामंद हुए थे तब अलबत्ता ज्यादा शर्तें मनवा सकते थे। न तो ठोक बजाकर अपने समर्थक विधायकों की वफादारी को परखा और न यह जांचा कि वे विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे सकते हैं या नहीं। दल-बदल कानून की बेड़ियां पड़ने के बाद अब किसी भी सरकार को गिराने का यही एक रास्ता है कि उसके इतने विधायक इस्तीफा दे दें कि सरकार अल्पमत में आ जाए।
अशोक गहलोत राजनीति में आने से पहले अपने पिता की तरह ही पेशेवर जादूगर थे। पायलट उनके बिछाए जाल में उलझ गए। प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे को बदलने की मांग हो या उसी सरकार की गाहे-बगाहे आलोचना की जिसमें उनकी हैसियत दूसरे नंबर की थी, पायलट युवा होने के कारण अपेक्षित परिपक्वता और धैर्य नहीं दिखा पाए। बेशक सरकार में उनकी और उनके मंत्रियों की ज्यादा नहीं चल रही होगी पर वे सब्र रखते तो आने वाले वक्त में हालात उनके अनुकूल हो सकते थे।
विधायक दल की बैठक में न आकर, सिंधिया से मुलाकात कर और हरियाणा के होटल में पनाह लेकर उन्होंने आलाकमान की नजर में अशोक गहलोत के इस आरोप को पुख्ता कर दिया कि वे मुख्यमंत्री पद की चाह में भाजपा के हाथों में खेल रहे हैं। जबकि भाजपा ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का कभी भरोसा नहीं दिया होगा क्योंकि पार्टी के 72 विधायकों को इस बात के लिए रजामंद करने से पहले वसुंधरा राजे को मनाना पड़ेगा। पायलट ने कह जरूर दिया कि वे कभी भाजपा में नहीं जाएंगे पर जिस सीमा तक वे आगे बढ़ चुके हैं, वहां से कांग्रेस में भी उनकी वापसी अब आसान कहां बची है।
चौतरफा विरोध
देवस्थानम बोर्ड बनाकर जैसे बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने। सूबे के चार धामों की विश्वव्यापी मान्यता, प्रतिष्ठा और महत्व प्राचीनकाल से चला आ रहा है। गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बदरीनाथ के दर्शन से सनातन धर्म में मोक्ष की प्राप्ति का द्वार खुलने की धारणा चली आ रही है। रावत ने इन चारों तीर्थ स्थानों के बेहतर प्रबंधन, रख-रखाव और विकास के मकसद से वैष्णो देवी श्राईन बोर्ड की तर्ज पर अध्यादेश के जरिए बनाया था श्रीदेव स्थानम बोर्ड।
आलोचकों में साधु संत तो शुरू से थे ही, अब भाजपा के अनेक नेता भी कर रहे हैं बोर्ड बनाने के फैसले का विरोध। पार्टी के धुरंधर नेता सांसद सुब्रहमण्यम स्वामी ने तो सरकार के खिलाफ उत्तराखंड हाईकोर्ट में ही याचिका दायर कर रखी है। स्वामी इस फैसले के मुखर आलाचकों में हैं। उनके सुर में सुर मिलाने वालों की संख्या बढ़ रही है।
पार्टी के पूर्व सूबेदार और नैनीताल के सांसद अजय भट्ट ने भी मुख्यमंत्री को चेताया है कि एक तरफ तो विपक्ष इसे मुद्दा बना रहा है दूसरी तरफ समाज में भी इसे लेकर गुस्सा है। नुकसान दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में उठाना पड़ सकता है। भट्ट ने मुख्यमंत्री को सलाह दे डाली है कि जनभावनाओं का आदर करते हुए वे इस अध्यादेश को या तो वापस ले लें या इसमें संशोधन करें। स्वामी तक तो सब सामान्य था पर अजय भट्ट का बयान आते ही सरकार और संगठन दोनों की ही बेचैनी बढ़ी है। अजय भट्ट गंभीर नेता माने जाते हैं। अनर्गल बयानबाजी कभी नहीं की।
उनकी सलाह का मुख्यमंत्री ने एक तरह से उपहास उड़ाया। बोले कि भट्ट ने अपनी सलाह देने में देर कर दी। जाहिर है कि मुख्यमंत्री इस मुद्दे को हल्के अंदाज में ले रहे हैं। जबकि चारों तीर्थों के पुरोहित भी सरकारी फैसले से नाराज बताए जा रहे हैं। अब इसे जात का रंग भी दिया जा रहा है। मुख्यमंत्री ठहरे राजपूत। विरोधी कह रहे हैं कि ब्राह्मणों को नीचा दिखाने की मंशा झलकती है बोर्ड के गठन से।