हरियाणा की धरती लालों यानी देवीलाल, बंसीलाल और भजनलाल के लिए भी मशहूर हुई। पर इसी धरती की शान में मौकापरस्ती के लिए भड़ाना बंधुओं ने भी कम गुल नहीं खिलाए। अवतार सिंह भड़ाना और करतार सिंह भड़ाना दोनों गुर्जर बंधुओं ने साबित कर दिखाया कि जेब भारी हो और जात का समर्थन भी हो तो हर दल गले लगाएगा। शुक्रवार को करतार सिंह भड़ाना का फिर हृदय परिवर्तन हुआ। भाजपा की नीतियों ने ऐसा मोह लिया कि वे बसपा का चोगा उतार भाजपा में शामिल हो गए। अंतरराज्यीय असर वाले हैं तभी तो हर दल पलक पांवड़े बिछाता रहा है।

भाई अवतार सिंह भडाना को तो देवीलाल ने 1987 में विधानसभा का सदस्य नहीं होने के बावजूद अपनी सरकार में छह महीने के लिए मंत्री बना दिया था। पर करतार की किस्मत चमकी 1996 में जब बंसीलाल ने अपनी अलग हरियाणा विकास पार्टी बनाई। वे पानीपत की समालखा सीट से हविपा के विधायक चुन लिए गए। उनकी ‘प्रतिभा’ से प्रभावित हो बंसीलाल ने उन्हें मंत्री भी बना दिया। पर वर्ष 2000 में उन्होंने ही हविपा सरकार के पतन की प्रस्तावना लिखी। इस बार मध्यावधि चुनाव हुआ तो वे ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी इनेलोद में चले गए। फिर विधायक बन गए।

इसके बाद हरियाणा में दाल गलनी बंद हो गई तो 2012 में यूपी पहुंच गए। अजित सिंह के रालोद से टिकट ले खतौली से विधायक बन गए। पर अगली बार इसी पार्टी से बागपत से हार का मुंह देखना पड़ा। लोकसभा चुनाव हुए तो इस साल रालोद छोड़ बसपा में चले गए और मध्यप्रदेश की मुरैना सीट से चुनाव लड़ भाजपा के नरेंद्र सिंह तोमर से हार गए। चूंकि रसूख की सियासत से संजीवनी लेते हैं सो शुक्रवार को फिर हृदय परिवर्तन हुआ और भाजपा में शामिल हो गए।

सब्र की इंतिहा

राजस्थान की गहलोत सरकार अब समर्थन कर रहे निर्दलीय विधायकों के दबाव में है। विधानसभा की दो सीटों के उपचुनाव के नतीजों से भी कांग्रेस सरकार के मनोबल का पता चलेगा। निर्दलीय तो सत्ता में हिस्सेदारी के लिए बेचैन हैं ही, बसपा से कांग्रेस में विलीन हुए आधा दर्जन विधायकों को भी सत्ता की मलाई की दरकार है। दो सौ सदस्यों वाली विधानसभा में अब गहलोत को 105 विधायकों का समर्थन है। उपचुनाव की दो सीटों में से एक भी हाथ लग जाए तो सोने में सुहागा होगा। सरकार बने एक साल होने वाला है।

लिहाजा निर्दलियों और पूर्व बसपाइयों के सब्र का बांध टूटने लगा है। सबको मंत्री पद नहीं दे सकते तो निगम या दूसरे समकक्ष ओहदे तो देने ही चाहिए। ज्यादातर निर्दलीय कांग्रेसी अतीत वाले ठहरे। गहलोत की दुविधा अपने पार्टी विधायकों का समायोजन भी है। वे इस तरह तितरफा दबाव में होने के कारण मंत्री मंडल विस्तार की हिम्मत नहीं दिखा पा रहे। निर्दलियों की दलील है कि जब रालोद के इकलौते विधायक सुभाष गर्ग को मंत्री बनाया जा सकता है तो उन्हें क्यों नहीं।

फिलहाल तो अफसरों के तबादलों में हस्तक्षेप की छूट और कुछ दूसरे कामों की सिफारिश के अवसर देकर निर्दलियों की मिजाजपुर्शी में सफल रहे हैं। पर इस स्थिति को ज्यादा लंबा नहीं खींच पाएंगे गहलोत। इस मिजाजपुर्शी को देख कांग्रेसी विधायकों को जलन और मलाल दोनों हो रहे हैं कि उनकी कोई पूछ नहीं। उनसे तो निर्दलीय ही अच्छे।