त्रिपुरा में साठ सदस्यीय विधानसभा में 32 सीटें जीतकर इस साल मार्च में भाजपा ने लगातार दूसरी बार सरकार बनाई। लेकिन, विप्लब कुमार देव माणिक साहा को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पचा नहीं पा रहे हैं। 2018 में जब भाजपा ने इस सूबे में पहली बार सरकार बनाई थी तो सफलता का सेहरा विप्लब कुमार देव के सिर बंधा था। चुनाव के वक्त वे भाजपा के सूबेदार भी थे। लेकिन, 2018 में आलाकमान ने उन्हें हटाकर माणिक साहा को मुख्यमंत्री बना दिया। साहा मूल भाजपाई नहीं हैं। कांग्रेस छोड़कर वे 2016 में आए थे भाजपा में। भाजपा ने 2022 में उन्हें राज्यसभा भेज दिया था। फिर 2018 में मुख्यमंत्री बनाया तो उनकी राज्यसभा सीट विप्लब कुमार देव को दे दी। देव साहा को अपने उत्तराधिकारी के रूप में अभी तक भी पचा नहीं पाए। त्रिपुरा में भाजपा दो खेमों में बंटी है।
एक खेमा संघी पृष्ठभूमि वाले और मूल भाजपाइयों का है तो दूसरा साहा की तरह माकपा और कांग्रेस से आए नेताओं का। मुख्यमंत्री के खिलाफ पार्टी के कई नेता बगावत पर उतारू हैं। तभी तो विप्लब कुमार देव पिछले हफ्ते अचानक दिल्ली आकर आलाकमान से मिले। मिलकर शिकायत की कि साहा पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा कर रहे हैं। पार्टी के संगठन महासचिव बीएल संतोष और उत्तर पूर्व के प्रभारी संबित पात्रा को यह झगड़ा निपटाने का जिम्मा दिया गया है।
केंद्रीय मंत्री प्रतिमा भौमिक और पार्टी के सूबेदार राजीब भट्टाचार्य भी मुख्यमंत्री की कार्यशैली से नाराज बताए जा रहे हैं। भट्टाचार्य के सुरक्षाकर्मी अचानक हटा लेने से भी खाई चौड़ी हुई है। एक वजह देव द्वारा पिछले दिनों लगाए गए एक चिकित्सा शिविर को सरकार का सहयोग न मिलना भी बनी है। गुटबाजी नहीं थमी तो लोकसभा चुनाव में खमियाजा भुगतना पड़ सकता है पार्टी को।
मध्यप्रदेश पर मंथन
मध्यप्रदेश में भाजपा आलाकमान तय नहीं कर पा रहा है कि विधानसभा चुनाव शिवराज चौहान को मुख्यमंत्री रखते हुए लड़ना लाभदायक होगा या नहीं। चौहान 2005 से लगातार सूबे के मुख्यमंत्री बने हैं। बीच में जब 2018 में भाजपा हार गई थी तब जरूर दो साल के लिए कमलनाथ सूबे की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री रहे। लेकिन, ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत से भाजपा फिर सत्ता पर काबिज हो गई थी। पार्टी आलाकमान का एक धड़ा मानता है कि 2018 में पार्टी को शिवराज चौहान के खिलाफ व्यवस्था विरोध के चलते हार का मुंह देखना पड़ा था। लिहाजा उन्हें कुर्सी पर रखते हुए विधानसभा चुनाव लड़ने में जोखिम है।
वैसे, कांग्रेस के नजरिए से देखें तो वह सत्ता परिवर्तन को कर्नाटक की तरह ही तय माने बैठी है। एक तो भाजपा में गुटबाजी है। दूसरे, सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप भी कम नहीं हैं। इसीलिए एक विकल्प यह भी है कि किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बताकर चुनाव लड़ने से परहेज किया जाए। चुनाव में ज्यादा समय नहीं बचा है तो आलाकमान भी सक्रिय हो गया है। शिवराज चौहान को दिल्ली से हिदायत मिली है कि सभी वरिष्ठ नेताओं के साथ मंत्रणा करें।
केंद्रीय मंत्रियों नरेंद्र सिंह तोमर और प्रहलाद पटेल को खास तवज्जो देने का फरमान आया तो चौहान को बैठक करनी पड़ी। मुद्दा था तो रणनीति बनाने का पर पहुंच गया सरकार के खिलाफ बन रहे माहौल पर। इस बैठक से कुछ दिन पहले चौहान सरकार के दो मंत्रियों गोपाल भार्गव और गोविंद सिंह राजपूत व तीन विधायकों ने आरोप लगाया था कि शहरी विकास मंत्री भूपेंद्र सिंह उनके क्षेत्रों की विकास योजनाओं को मंजूरी नहीं दे रहे हैं। इसी मुद्दे पर भार्गव और राजपूत मुख्यमंत्री से भी मिले।
आलाकमान ने अलग से इस गुटबाजी के बारे में राज्य संगठन से तथ्यात्मक रिपोर्ट मांगी है। पिछले दिनों अपनी अनदेखी से दुखी होकर पूर्व मंत्री दीपक जोशी पार्टी छोड़कर कांगे्रस में शामिल हो गए थे। वे सूबे के पहले भाजपाई मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के पुत्र हैं। पूर्व मंत्री और अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा भी अपनी सरकार की कार्यशैली की आलोचना कर चुके हैं।
क्या होगी कांग्रेस की कहानी?
अगले लोकसभा चुनाव में विपक्ष का एक उम्मीदवार उतारने की नीतीश कुमार की रणनीति अभी परवान चढ़ती नजर नहीं आ रही। नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार के मुद्दे पर गैर भाजपा विपक्ष फिर विखंडित नजर आया। भाजपा का विरोध करने वाले अकाली दल, तेलगुदेशम, जनता दल (सेकु) और बसपा जैसे दल विपक्ष का साथ छोड़ गए। वाइएसआर कांग्रेस और बीजू (जद) तो खैर भाजपा विरोधी किसी भी मोर्चे में शामिल न होने की बात खुलेआम कर ही रहे थे।
सबसे बड़ी अड़चन क्षेत्रीय दलों का अपने राज्यों में कांग्रेस को भाव नहीं देने का रवैया है। कांग्रेस में भी कुछ अंतरविरोध है ही कि ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और केसीआर जैसे नेताओं से हाथ मिलाना विधानसभा चुनाव में नुकसान करेगा या नहीं। कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस भी अब एकता के लिए ज्यादा उतावली नहीं लगती। देश की सियासी तस्वीर इस साल होने वाले मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद साफ होगी। कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर हुआ तो फिर क्षेत्रीय दलों को उसकी छतरी के नीचे आना पड़ेगा। उल्टा हुआ तो हर क्षेत्रीय दल कांग्रेस पर हल्ला बोल करेगा।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)
