मध्यप्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर भाजपा के भीतर एक बार फिर सरगर्मी बढ़ गई है। यों शिवराज चौहान को हटाने की मुहिम पिछले साल भी शुरू हुई थी, पर बाद में आलाकमान ने फैसला टाल दिया था। शिवराज चौहान चौथी बार सूबे की भाजपा सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। प्रदेश भाजपा की गुटबाजी किसी से छिपी नहीं है। फर्क बस इतना आया है कि अब कैलाश विजयवर्गीय मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर माने जा रहे हैं। हालांकि पांच साल पहले तक अमित शाह के नजदीकी होने के नाते पार्टी में उनका रुतबा था। पर कई विवादों में फंस जाने और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव में अपेक्षित नतीजे लाने में कामयाब नहीं होने के कारण वे अब एक तरह से हाशिए पर हैं। ऊपर से उनका विधायक बेटा अलग कोई न कोई बखेड़ा करता रहा है। पद की दौड़ में नरोत्तम शर्मा और ज्योतिरादित्य सिंधिया को माना जा रहा है।

मुख्यमंत्री की दौड़ में नरोत्तम शर्मा और ज्योतिरादित्य सिंधिया आगे

हालांकि, पिछले साल नरेंद्र सिंह तोमर का नाम भी संभावित उम्मीदवारों में आया था। लेकिन, अब दौड़ में नरोत्तम शर्मा और ज्योतिरादित्य सिंधिया बताए जा रहे हैं। शिवराज चौहान के नेतृत्व में 2018 में भाजपा कांग्रेस से मात खा गई थी। तभी तो मुख्यमंत्री कमलनाथ बने थे। उनकी सरकार गिराने और वापस भाजपा की सरकार बनवाने का सारा श्रेय सिंधिया को ही जाता है। सिंधिया अभी राज्यसभा के सदस्य और केंद्रीय मंत्री हैं। वे चौहान की तुलना में युवा हैं। चौहान के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की सूरत में पार्टी को 2018 जैसे अंजाम का डर सता रहा है। अगर पैमाना लोकप्रियता और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में महारत को माना जाए तो नरोत्तम शर्मा भारी पड़ते हैं। जो इस समय सूबे की सरकार में गृहमंत्री हैं। कुर्सी छिनने की आहट शिवराज चौहान को भी है। वे भी अपनी गोटियां फिट करने और पिछड़ा कार्ड खेलने का दांव चल रहे हैंं।

झटके जरा हटके

विपक्षी एकता के लिए जुटे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इस हफ्ते दो झटके लगे। पहला ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने दिया। दूसरा दो दशक तक उनके खास रहे आरसीपी सिंह ने भाजपा में विधिवत शामिल होकर दिया। आरसीपी सिंह ने जनता दल (एकी) से इस्तीफा तो पहले ही दे दिया था और बाहर रहकर भी अनौपचारिक रूप से भाजपा के ही प्रवक्ता की तरह बर्ताव कर रहे थे। तभी नीतीश इस पर हैरान नहीं हुए। उलटे वे तो यही उम्मीद कर रहे थे कि भाजपा आरसीपी सिंह को राज्यसभा में अवसर देकर केंद्र में मंत्री बनाए रखेगी। आरसीपी सिंह नीतीश के नालंदा जिले के तो हैं ही उन्हीं की तरह कुर्मी बिरादरी के भी हैं।

वे उत्तर प्रदेश काडर के आइएएस थे और नीतीश के संपर्क में उनके रेल मंत्री रहने के दौरान आए थे। एक दशक तक तो नीतीश के नाक-कान सब कुछ वही थे। तभी तो पार्टी के अध्यक्ष भी बने और केंद्र में मंत्री भी। लेकिन, उनका भाजपा की गोद में बैठना नीतीश को ऐसा अखरा कि दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया उन्हें। भाजपा उनका इस्तेमाल नीतीश पर प्रहार कराने में करेगी। पार्टी में शामिल होते समय इसका संकेत मिल गया। आरसीपी सिंह अभी तक आरोप लगाते थे कि नीतीश की महत्त्वाकांक्षा प्रधानमंत्री बनने की है। लेकिन, अब उन्होंने नीतीश को पीएम ही कह दिया और खुलासा भी कर डाला कि पीएम यानी पलटी मार।

बहरहाल, भुवनेश्वर का झटका ज्यादा बड़ा है। नवीन पटनायक ने नीतीश से साफ कह दिया कि वे न तो किसी मोर्चे का हिस्सा बनेंगे और न केंद्र की सियासत में उनकी कोई दिलचस्पी है। हो भी कैसे सकती है। ओडिशा में लोकसभा की कुल 21 ही तो सीटें हैं। सबसे लंबे समय तक लगातार मुख्यमंत्री रहने के ज्योति बसु का रिकार्ड पटनायक जल्द ही तोड़ भी देंगे। केंद्र की सरकार का नवीन समर्थन करते रहे। उनके राज्य में केंद्र ने ज्यादा हस्तक्षेप नहीं किया। उन्हें विपक्षी एकता का हिस्सा बनाने की तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन की कोशिश भी नाकाम हो गई थी। नीतीश को कहना पड़ा कि वे राजनीतिक चर्चा के लिए नहीं बल्कि पटनायक से शिष्टाचार भेंट के लिए आए थे।

सियासत के कई सबक

शिवसेना विवाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से महाराष्ट्र की सियासी गहमागहमी पर विराम लगा है। अजित पवार की मुख्यमंत्री पद की हसरत भी अधूरी रह गई। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में उत्तराधिकार की लड़ाई पर तो चाचा शरद पवार ने इस्तीफे का दांव चलकर भतीजे को झटका दिया ही था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एकनाथ शिंदे की कुर्सी पर मंडरा रहे संकट को भी टाल दिया। भाजपा तत्काल तो कोई सौदेबाजी अजित पवार के साथ शायद ही करे। अजित पवार और सुप्रिया सुले में शरद पवार की विरासत की मुहिम तो पहले से ही चल रही थी पर ताजा खतरा पार्टी विधायक दल की टूट का बताया जा रहा था।

चाचा के इस्तीफा प्रकरण में भतीजे ने दूर रहकर ही सारा तमाशा देखा। इस्तीफा देकर जहां मराठा छत्रप शरद पवार अपना सियासी कौशल दिखाने में सफल हो गए। वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने शिंदे गुट के 16 विधायकों की सदस्यता पर तलवार न चलाकर अजित पवार के सियासी सौदेबाजी के मंसूबे पर पानी फेर दिया। वहीं नैतिकता से दूर जा रही राजनीति में उद्धव ठाकरे की एक अलग छवि ही सामने आई। बेशक, उद्धव सत्ता में नहीं हैं, देखते हैं आगे जनता उनका कितना साथ देती है।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)