उनके चीखने से तो भाजपाई खुश ही हुए होंगे। यह कोई दलील नहीं हो सकती कि नकली शराब पीने से भाजपा शासित राज्यों में भी कम मौतें नहीं हुई। ऊपर से यह और कह दिया कि जो पिएगा, वह तो मरेगा ही। मरने वालों के परिजनों को कोई मुआवजा नहीं देने का एलान भी गुस्से में ही कर दिया होगा।

सैद्धांतिक तौर पर भले नीतीश अपनी जगह सही हों पर सियासत में लचीलापन भी अपनाना पड़ता है। भाजपाई तो कुढ़नी विधानसभा सीट के उपचुनाव के नतीजे के बाद से नीतीश को उकसा रहे हैं। यह सीट भाजपा ने पहली बार नहीं जीती है।

इससे पहले भी 2015 में भाजपा के केदारनाथ गुप्ता ही जीते थे। हां, उससे पहले जरूर जद (एकी) के मनोज कुशवाह विजयी हुए थे। रही 2020 के आम चुनाव की बात तो राजद के अनिल कुमार सहनी ने गुप्ता को पटखनी जरूर दी थी। सहनी के अयोग्य घोषित हो जाने से ही कुढ़नी में उपचुनाव हुआ था।

कायदे से जद (एकी) को यह सीट राजद के लिए ही छोड़नी चाहिए थी। पर, नीतीश ने पुराना वास्ता देकर अपना उम्मीदवार उतारा था। इससे राजद खेमे में मायूसी भी दिखी थी। नीतीश एलान कर चुके हैं कि 2025 का विधानसभा चुनाव महागठबंधन तेजस्वी यादव की अगुआई में लड़ेगा। वे तो केंद्र से भाजपा को बेदखल करने के मिशन में जुटेंगे।

हालांकि, प्रधानमंत्री पद की हसरत से इनकार किया है। भाजपा के खिलाफ गैर भाजपाई दलों को एकजुट करने की एक कोशिश नीतीश ने पिछले दिनों की भी थी। दुविधा यह है कि भाजपा पर हमले तो सभी क्षेत्रीय दल बोल रहे हैं पर प्रधानमंत्री पद की हसरत छोड़ने को कोई तैयार नहीं। इसी खींचतान का ही तो भाजपा को लाभ मिल रहा है। बहरहाल कुढ़नी की हार के लिए कुछ लोग शराबबंदी के फैसले को भी वजह बता रहे हैं।

सबकी हसरत एक

भाजपा के खिलाफ 2024 के आम चुनाव में विपक्षी दलों का मोर्चा बनने की अभी तक तो कोई संभावना दिखी नहीं। दिखावे के लिए कुछ कोशिशें अतीत में हुई तो जरूर पर हास्यास्पद बनकर ही रह गई। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यही संकल्प लिया था। पर, उनका उत्साह जल्दी ही ठंडा पड़ गया। इसे लेकर आशान्वित शरद पवार भी रहे हैं, लेकिन वे इसे लेकर कभी मुखर नहीं रहे हैं। तेलंगाना राष्ट्र समिति के चंद्रशेखर राव ने भी हाथ-पैर मारने की कोशिश की थी। पर सफल नहीं हुए। इस मुद्दे पर सभी क्षेत्रीय दलों में एका है भी नहीं।

अरविंद केजरीवाल लगातार कह रहे हैं कि वे किसी के साथ गठबंधन नहीं करेंगे। यही रवैया मायावती का है। वाईएसआर कांग्रेस और बीजू जनता दल भी तटस्थ भाव अपनाए हैं। राजद और डीएमके जैसे दल जरूर इसके पक्ष में हैं पर वे मानते हैं कि कांग्रेस को अलग-थलग करके भाजपा को हटाने वाला गठबंधन संभव नहीं।

इन्हीं विरोधाभासों से भाजपा को लगातार ऊर्जा मिली है। एमआइएम के ओवैसी पर तो हर कोई भाजपा का पिट्ठू होने का आरोप लगाता है पर अरविंद केजरीवाल के बारे में विश्लेषण नहीं करता। केजरीवाल ने गुजरात में जो 13 फीसद वोट पाए हैं, वे कांग्रेस के ही तो थे। भाजपा के वोट तो 2017 की तुलना में और बढ़ गए।

पर, केजरीवाल इसे स्वीकार नहीं करेंगे। विपक्षी एकता की राह का असली रोड़ा तो हर नेता की प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा है। चंद्रशेखर राव ने तो इसके लिए अपनी पार्टी तक का नाम बदल डाला। तेलंगाना राष्ट्र समिति को भारत राष्ट्र समिति बना देने भर से क्या वे प्रधानमंत्री बन जाएंगे? इस यक्ष प्रश्न का उत्तर राव ही दे सकते हैं।

सबसे बड़ा खिलाड़ी

गुजरात कांग्रेस का हाल जैसा भी हो पर उसके नेता राजीव शुक्ल के सितारे बुलंद हैं। हिमाचल प्रदेश में भी उनका भाग्य चमका। विधानसभा चुनाव से कुछ दिन पहले ही राजीव शुक्ल को इस सूबे का प्रभारी बनाया गया था।

शुक्ल को अंदाज भी रहा ही होगा कि हिमाचल हर बार सत्ता परिवर्तन करने के अपने रिवाज को इस बार भी बरकरार रखेगा। सरकार कांग्रेस की बनी और बल्ले-बल्ले राजीव शुक्ल की हो गई। पुराने कांग्रेसी नहीं हैं। पत्रकारिता से राजनीति में आए। शुरुआत उत्तर प्रदेश में नरेश अग्रवाल की लोकतांत्रिक कांग्रेस से हुई थी।

पहली बार 2000 में राज्यसभा भी इसी पार्टी ने भेजा। वाजपेयी सरकार के जमाने में राजग की बैठकों में नुमाइंदगी करते-करते 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस में शामिल हो गए। नतीजतन 2006 में कांग्रेस ने राज्यसभा भेज दिया।

मौजूदा दौर में राज्यसभा सीटों का पार्टी के पास संकट होने से गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल जैसे नेता तो बगावत कर रहे हैं पर सोनिया गांधी ने राजीव शुक्ल को फिर भी राज्यसभा भेज दिया। कभी क्रिकेट नहीं खेला तो क्या क्रिकेट की सबसे बड़ी संस्था के तो सर्वेसर्वा हैं ही। भाग्य और जुगाड़ ने बना दिया है उन्हें सबसे बड़ा खिलाड़ी।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)