प्रशांत किशोर ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विरोध में एक तरह से मोर्चा ही खोल दिया है। जब से नीतीश ने उन्हें पार्टी से बाहर निकाला है, पीके और स्वच्छंद हो गए हैं। फरमाया है कि बिहार के मुख्यमंत्री भाजपा के जाल में फंस चुके हैं। वे तय नहीं कर पा रहे कि गांधी के साथ जाएं या गोडसे के। बातें तो गांधी के विचारों की करते हैं पर आचरण विरोधाभासी है। प्रशांत किशोर का अवतरण 2014 में चुनावी रणनीतिकार के तौर पर हुआ था। तब वे भाजपा और नरेंद्र मोदी के पैरोकार बन कर उभरे थे।
चुनाव में मोदी देश के सबसे लोकप्रिय सियासी ब्रांड बन कर उभरे तो प्रशांत किशोर भी ब्रांड बन गए। फिर बिहार में नीतीश और लालू गठबंधन के लिए काम किया। इस मिशन में भी सफलता मिली। नीतीश खुश हुए तो उन्हें न केवल मंत्री पद के बराबर ओहदा दिया बल्कि पार्टी में भी उपाध्यक्ष बना दिया। चुनावी रणनीतिकार होने के उनके प्रोफेशनल काम में भी दखल नहीं दिया। तभी तो वे पंजाब में पिछले चुनाव में कैप्टन अमरिंदर के लिए काम कर पाए और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के लिए। पश्चिम बंगाल में अब ममता बनर्जी भी उनके परामर्श को महत्व दे रही हैं। ‘अच्छे बीते पांच साल, लगे रहो केजरीवाल’ नारे को उन्हीं की देन बताया जा रहा है।
बहरहाल अब उन्होंने बिहार में अपना हुनर दिखाने की घोषणा की है। नीतीश ने सीएए के विरोध की उनकी सलाह नहीं मानी तो पीके बागी हो गए। अब वे नीतीश से सवाल कर रहे हैं कि पटना के विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने की उनकी मांग पर केंद्र सरकार ने क्या किया? केंद्र से बिहार के लिए वे अब तक विशेष पैकेज क्यों नहीं ले पाए? महागठबंधन के समर्थन की संभावना पर तो पीके अभी मौन हैं पर सूबे के बेरोजगारों को लामबंद कर वे नीतीश के लिए चुनौती बनना चाहते हैं। उन्हें शिकायत है कि नीतीश भाजपा के अहसान तले दब कर अपने व्यक्तित्व को बौना बना चुके हैं। सही है कि उनकी सरकार ने राजद सरकार से कुछ काम बेहतर किए होंगे पर जिस तरह के प्रदर्शन की उनसे उम्मीद थी, उस पैमाने पर तो वे फिसड्डी ही साबित हुए हैं।
बेबस हाईकमान
सोशल मीडिया पर संतोष के नाम से जारी चिट्ठी को बेशक भाजपा ने फर्जी बता दिया है। पर कर्नाटक में पार्टी के भीतर सुलग रहे असंतोष को सिरे से नहीं नकार पा रहे हैं पार्टी नेता। येदुरप्पा को हटाने की मांग वाला यह पत्र सूबे में काफी चर्चित हो रहा है। इस महीने 27 तारीख को येदुरप्पा 77 साल के हो जाएंगे। यानी भाजपा की नई आचार संहिता के हिसाब से तो वे एक दिन भी मुख्यमंत्री नहीं रह सकते। उनकी वफादारी को देखते हुए उनका पुनर्वास पहले ही किसी राजभवन में हो जाना चाहिए था। इस नाते तो पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री ही गलत बनाया। अघोषित अंदरूनी आचार संहिता के हिसाब से तो भाजपा में 75 पार का कोई मुख्यमंत्री हो ही नहीं सकता। कुमारस्वामी की सरकार को गिरा कर जब येदुरप्पा ने पिछले साल सरकार बनाई थी, तभी वे 75 पार कर चुके थे।
कांग्रेस और जद (सेकु) के 17 बागी विधायकों की मदद से उन्होंने जद (सेकु) और कांग्रेस की साझा सरकार को गिराया था। हालांकि बागियों की विधानसभा सदस्यता अध्यक्ष ने खत्म कर दी थी। पर सरकार तो गिर ही गई थी। येदुरप्पा ने छह फरवरी को लंबे इंतजार के बाद अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया। जिन दस चेहरों को मंत्री बनाया वे सभी कांग्रेस और जद (सेकु) के दल-बदलू ठहरे। यानी भाजपा के एक भी विधायक को इस विस्तार में मंत्री पद नहीं मिल पाया। विस्तार की इजाजत भी आलाकमान ने येदुरप्पा को काफी मशक्कत के बाद दी। ऊपर से यह हवा फैल गई कि आलाकमान ने तो 13 नाम तय किए थे। तीन भाजपाई थे। पर येदुरप्पा ने आखिरी वक्त पर सूची से ये तीनों नाम हटवा दिए। दूसरे विस्तार के बाद विभागों का बंटवारा करते ही असंतोष सतह पर दिखा तो येदुरप्पा को चौबीस घंटे के भीतर फिर विभाग नए सिरे से तय करने पड़े।
भाजपा के बागियों का जमावड़ा पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टीगार के आसपास हो रहा है। आठ बार के विजेता उमेश कट्टी एकदम बागी तेवर दिखा रहे हैं। उन्हें येदुरप्पा ने मंत्री पद नहीं दिया। जबकि उन्हीं के जिले के कांग्रेस छोड़ कर आए विधायक को उपमुख्यमंत्री बना दिया। येदुरप्पा पर परिवारवाद के आरोप भी आलाकमान तक पहुंचे हैं। उनके बेटे बी वाई विजयेंद्र के हस्तक्षेप से भी कई मंत्री खफा बताए जा रहे हैं। उन्हें सुपर सीएम कहा जा रहा है। ऐसे में पार्टी आलाकमान ज्यादा देर तक आंख मूंद कर नहीं बैठ सकता। मुश्किल यह है कि येदुरप्पा का सूबे की सियासत में जितना दबदबा है उतना भाजपा के किसी दूसरे नेता का नहीं। इसी मजबूरी के कारण बगावत कर अलग पार्टी बनाने के बावजूद येदुरप्पा को पार्टी में वापस लेना पड़ा। न चाहते हुए भी आलाकमान को पिछले साल कर्नाटक की सत्ता पर काबिज होने के येदुरप्पा के खेल में शिरकत भी करनी पड़ी। एक तरह से लाचार है भाजपा आलाकमान।
वक्त का फेर
कभी अपने केंद्रीय नेतृत्व को आंखें दिखाने के लिए चर्चित थीं वसुंधरा राजे। पर वक्त का फेर देखिए कि अब सूबे की सियासत में उनका रंग फीका पड़ने लगा है। जब तक मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष रहीं, पार्टी में सारे फैसले अपनी मर्जी से लेती थीं। जैसे सचमुच की महारानी हों। खांटी संघी अतीत वाले कद्दावर पार्टी नेता घनश्याम तिवाड़ी की ऐसी गत बनाई कि बेचारे पार्टी छोड़ने को ही मजबूर हो गए। संघ भाजपा के हिमायती माने जाने वाले एक मीडिया समूह को भी विरोधी बना लिया।
नतीजतन 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले संघी खेमा ही कहने लगा था कि अगर गलती से वसुंधरा राजे फिर सत्ता में आ गई तो हालात और बदतर होंगे। उनसे पीछा छुड़ाने की जुगत में पार्टी आलाकमान भी था ही। वक्त बदला, केंद्र में भाजपा की और मजबूती से वापसी हुई और राजस्थान में वसुंधरा सत्ता से बाहर हो गर्इं तो आलाकमान अपनी चलाने लगा।
वसुंधरा को पूरी तरह हाशिए पर पहुंचा दिया। सो उन्होंने पार्टी कार्यक्रमों में शिरकत भी बंद कर दी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के चलते उन्हें वह सरकारी बंगला छोड़ देना चाहिए थो जो उन्होंने बतौर पूर्व मुख्यमंत्री अपने नाम आबंटित कराया था। मुख्यमंत्री रहते इसे राजमहल जैसी सुख-सुविधाओं से सुसज्जित जो किया था। पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने दरियादिली दिखाई। उनका पसंदीदा बंगला बतौर विधायक ही उन्हें आबंटित कर दिया। इस अहसान से ऐसी दब गईं कि कांग्रेस सरकार के प्रति तेवर आक्रामक नहीं कर पा रहीं। अपने पार्टी आलाकमान को अलग हैरान कर दिया। पर आलाकमान भी उन्हें चिढ़ाने के लिए उन्हीं पार्टी नेताओं को अहम पद दे रहा है, जिन्हें वसुंधरा फूटी आंखों देखना पसंद नहीं करतीं। अब देखते हैं कि इनका रुख क्या होता है।
(प्रस्तुति : अनिल बंसल)

