2014 के पहले जो साहित्यकार अण्णा आंदोलन को देश की दूसरी आजादी बता रहे थे, कांग्रेस के विनाश का नारा लगा रहे थे, भारत की राजनीति में विकल्प के लिए रोज जंतर-मंतर का फेरा लगा रहे थे वहीं 2022 के जाड़े में ठिठुरते हुए भी राहुल गांधी के साथ दिखने की कोशिश कर रहे थे। 2014 के पहले जिस कांग्रेस के लिए विकल्प तलाशा जा रहा था, उसी को विकल्प के रूप में देखने के लिए साहित्यकार और कई पत्रकार खुले दिल से राहुल गांधी की दिल्ली में आगवानी में जुटे थे।
आठ साल पहले जिनके सिर पर ‘मैं भी अण्णा’ की टोपी थी अब उनके कोट पर ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का बिल्ला लटक रहा था। ‘मोदी जी आप थकते नहीं हैं’ का जुमला उड़ा कर खास खेमे के पत्रकारों पर हल्ला बोल करने वाले ठिठुरते हुए कह रहे थे, ‘कमाल है राहुल गांधी को सर्दी नहीं लगती’। अण्णा हजारे में दूसरा गांधी देखने वाले साहित्यकार-पत्रकार राहुल गांधी में वो तपस्वी देख रहे थे जिन्होंने साधना से तापमान पर काबू पा लिया। वामपंथी धड़े के लोग भी राहुल के साथ अपने खड़े होने को न्यायोचित बताने के लिए तर्क दे रहे थे कि यह ‘अराजनीतिक यात्रा’ है, इसलिए ‘नैतिक समर्थन’ में आए हैं।
कवि-सदन
साल के आखिरी दिनों में भारतीय राजनीति थोड़ी कम भाषिक कटुता की ओर बढ़ती दिखी। जाहिर सी बात है कि अगर आप अपनी बात शेरो-शायरी में कहेंगे तो आरोप-प्रत्यारोप भी भले लगेंगे। कुछ ऐसा ही दृश्य हरियाणा विधानसभा में दिखा जब मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर और कांग्रेस नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा ने अपनी बात कविताओं से कहनी शुरू कर दी। शराब तस्करी और गन्ने की समस्याओं पर जब खट्टर ने जांच समिति बैठाने की बात कही तो हुड्डा ने कहा, ‘चमन को रौंद डाला जिन्होंने अपने पैरों से, वही दावा कर रहे हैं इस चमन की रहनुमाई का’। इसके जवाब में मनोहरलाल खट्टर ने कहा , ‘जिसे निभा न सकूं ऐसा वादा नहीं करता/मैं बात अपनी सीमा से ज्यादा नहीं रखता/तमन्ना रखता हूं आसमान छू लेने की/लेकिन औरों को गिराने का इरादा नहीं रखता…।
सुनो माधव
2022 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार ‘रेत समाधि’ को तो नहीं मिला, लेकिन अकादेमी के निर्णायक मंडलों ने ‘रेत समाधि’ से प्रेरणा जरूर ली। जब तक ‘रेत समाधि’ सिर्फ हिंदी में थी तब तक किसी आलोचक ने उसमें किसी तरह की महानता नहीं देखी थी, लेकिन ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद को बुकर पुरस्कार मिलते ही इसकी रचना शैली के प्रशंसक, विषय-वस्तु के दीवाने और खरीदारों की फौज आ गई। जैसे सामंती कारोबारी भाषा में ब्याज को मूलधन से प्यारा माना जाता है वैसे ही ‘रेत समाधि’ ने हिंदी वालों को अनुवाद को मूल से श्रेष्ठ साबित करने का रास्ता दिखा दिया।
इस बार साहित्य अकादेमी के अनुवाद पुरस्कार की कड़ी में अकादेमी के उपाध्यक्ष माधव कौशिक के खंडकाव्य ‘सुनो राधिका’ के उर्दू अनुवाद को पुरस्कृत किया गया है। यहां तो नैतिकता का सवाल भी उठता है कि क्या किसी संस्थान के उपाध्यक्ष की रचना को उसी संस्थान द्वारा पुरस्कृत करना जायज है? साहित्यकारों का एक ही जवाब हो सकता है कि नैतिकता साहित्य में खोजो, साहित्यकार में नहीं जैसा कि सत्ता से जुड़े किसी भी साहित्यकार को सत्ता से जुड़े संस्थान के पुरस्कार मिलने के बाद साहित्यकारों का खेमा तर्क देने लगता है। इस बार तो प्रतिरोधी पक्ष के अगुआ चेहरों ने भी अपील कर डाली कि रचनाकार का सत्ता प्रेम नहीं कविता वाला ‘प्रेम पत्र’ देखो।
साहित्य अकादेमी पुरस्कार के निर्णायक मंडल से लेकर पुरस्कारों पर जिस तरह माधव कौशिक की छाप दिख रही है उसे देख कर कयास लगाए जा रहे हैं कि वे साहित्य अकादेमी के अगले अध्यक्ष हो सकते हैं। वैसे भी राजनीति हो या उसके आगे चलने वाली कथित मशाल यानी साहित्य में नैतिकता को तभी नकारा जाता है जब उसके शक्तिशाली होने का अहसास होता है। माधव कौशिक शायद अकादेमी के पहले ऐसे सदस्य हैं जिनकी रचना को पद पर रहते हुए पुरस्कार मिला। तो क्या उनकी इस कीर्ति का मान अगले अध्यक्ष के रूप में माना जाएगा?
(संकलन : मृणाल वल्लरी)