पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 सीटें हैं सो यूपी और महाराष्ट्र के बाद अब यही सूबा है देश की सियासत में सबसे खास। भाजपा यहां अपनी जमीन तलाशने की कवायद में जुटी है। कांग्रेस और वाममोर्चे को तो ममता बनर्जी ने निपटा दिया पर भाजपा से भिड़ने में सांस उनकी भी फूल रही है। दोनों दलों में कटुता भी कुछ ज्यादा ही दिखती है। ममता बनर्जी भी पलटवार करने में कोई देर नहीं करतीं। और तो और घर परिवार तक को समेट रहे हैं इस कवायद में दोनों ही। चुनाव आयोग ने कोलकाता के पुलिस कमिश्नर समेत पांच पुलिस अफसरों के तबादले कर चुनावी जंग की इस आग में जैसे घी डाल दिया हो। ममता ने तपाक से कह दिया कि आयोग भाजपा के इशारे पर काम कर रहा है और तबादलों का मकसद सियासी है।
प्रधानमंत्री ने भी इस सूबे में पूरी ताकत झोंक दी है। शुरुआती योजना तो दस चुनावी रैलियां करने की थी। पर अब बढ़ा कर सोलह कर दी है। एक तरह से जंग तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच ही नजर आ रही है। प्रधानमंत्री अपनी रैलियों में ममता पर सूबे के विकास की राह में स्पीड ब्रेकर बन जाने का आरोप तो लगा ही रहे हैं, ममता के सांसद भतीजे अभिषेक बनर्जी पर सूबे के संसाधनों की लूट का आरोप भी जड़ रहे हैं। रही ममता की बात तो उन्हें भी सैनिकों और शहीदों के नाम पर मोदी द्वारा वोट मांगना कतई नहीं भा रहा। दोनों पर लोकतंत्र पर डाका डालने का आरोप तो खैर अरसे से लगा ही रही हैं। पिछले चुनाव में भाजपा को महज दो सीटों पर सफलता मिल पाई थी। इस बार बहुकोणीय मुकाबलों के बीच भाजपा अपनी सीटें बढ़ाने के लिए कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ रही।
अटकी सबकी सांस
पहले चरण की 91 सीटों के लिए गुरुवार को वोट तो पड़ गए पर नतीजों को लेकर सभी अपने कईं कयास लगा रहे हैं। पिछले चुनाव में छप्पर फाड़ 73 सीटें राजग को यूपी से मिली थीं। इसलिए पहले चरण के मतदान में शामिल इस सूबे की आठ सीटों को लेकर हर कोई जिज्ञासु दिखा। दरअसल पिछली दफा ये सभी सीटें भाजपा को मिली थीं। यहां मुसलमान आबादी बीस फीसद से पचास फीसद तक ठहरी। इसके बावजूद यूपी की अस्सी सीटों पर एक भी मुसलमान चुनाव नहीं जीत पाया था। कारण छिपे नहीं थे। मुजफ्फरनगर के 2013 के सांप्रदायिक दंगों ने भाजपा के पक्ष में हवा बनाई थी। केंद्र की यूपीए और यूपी की अखिलेश सरकार के खिलाफ लोगों की नाराजगी का फायदा भी भाजपा को मिला था। विपक्ष के बिखराव ने राह और आसान बना दी थी। इस बार कई तथ्य भाजपा के प्रतिकूल रहे।
एक तो पांच साल पहले जैसा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं दिखा। दूसरे सपा-बसपा गठबंधन के कारण गैरभाजपा मतों का ध्रुवीकरण आसान हुआ। ऊपर से केंद्र और राज्य दोनों जगह भाजपा की सरकारें होने से लोगों की व्यवस्थागत नाराजगी ने कुछ नुकसान ही पहुंचाया। अजित सिंह से रूठे जाटों में पूरी तरह न सही पर उनकी वापसी तो हुई ही। कांग्रेस ने ज्यादातर सीटों पर ऐसे उम्मीदवार उतारे जो सपा-बसपा-रालोद गठबंधन का कम, भाजपा का नुकसान ज्यादा करते दिखे। ऐसे में औसत मतदान पिछले चुनाव के आसपास रहने से कयास ज्यादा पेचीदा हैं। पर नेताओं की हिम्मत की दाद देनी चाहिए। परिणाम तो 23 मई को सामने आएगा, पर अपने पक्ष में हवा बहने के दावे करने में न अखिलेश यादव-मायावती ने गुरेज किया और न भाजपा नेताओं ने ही कोई देर लगाई।