उत्तराखंड कहने को छोटा राज्य ठहरा। पर सियासी धमाचौकड़ी में बड़े राज्यों को भी मात दे रहा है। गनीमत है कि यहां दो ही पार्टियां कांग्रेस और भाजपा असर रखती हैं। तो भी दोनों ही गुटबाजी से मुक्त नहीं। इन दिनों शहरी निकाय चुनाव का रंग जमा है। लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी फूट खुलकर सतह पर दिख रही है। पार्टी के सूबेदार प्रीतम सिंह ने जैसे हरीश रावत को खुड्डेलाइन लगाने की कसम खा रखी है। राहुल गांधी ने पूर्व मुख्यमंत्री रावत को अपनी टीम में जगह दी थी। पर सूबे में बाकी क्षत्रप उन्हें भाव देने को तैयार नहीं। मसलन प्रीतम सिंह ने उनका नाम स्टार प्रचारकों की सूची में तो जरूर जोड़ दिया पर प्रचार के लिए पार्टी की कोई जिला इकाई उन्हें बुला ही नहीं रही। सो, उनके समर्थक भी इस चुनाव से किनारा कर रहे हैं। अपना दर्द हरीश रावत छिपा भी नहीं रहे। पत्रकारों ने कुरेदा तो फट पड़े- मैं तो नहा धोकर कपड़े पहनकर तैयार बैठा हूं। बस निमंत्रण का इंतजार है।

उधर उनके विरोधी खेमे के अपने तर्क हैं। खुलकर न सही पर पार्टी के अंदरूनी प्लेटफार्म पर प्रीतम सिंह खेमा कह चुका है कि हरीश रावत की छवि मुसलमान समर्थक की है। उन्हें ज्यादा भाव देने से भाजपा के पक्ष में हिंदू ध्रुवीकरण होते देर नहीं लगेगी। ऊपर से ब्राह्मण-ठाकुर के आधार पर भी मतदाताओं के विभाजन को रोकना मुश्किल होगा। और तो और हल्द्वानी में इंदिरा हृदयेश तक ने मेयर के उम्मीदवार अपने बेटे सुमित के प्रचार के लिए हरीश रावत को नहीं बुलाया। इस चुनाव के नतीजों से मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत और कांग्रेस के सूबेदार प्रीतम सिंह का सियासी कद प्रभावित होगा, हरीश रावत का नहीं। बात भी ठीक ही है। फिर क्यों जोखिम लें प्रीतम सिंह।