करहल की चुनावी रैली में मुलायम सिंह यादव के पहुंचने से भाजपाई खेमे में खलबली मच गई है। अपर्णा यादव के भाजपा में शामिल होने का यह निहितार्थ निकाला गया था कि यादव परिवार में कलह है। मुलायम अगर करहल गए तो साफ हो गया कि कलह अगर रही भी होगी तो अब खत्म हो चुकी हैै। अखिलेश यादव की 2017 की करारी हार के यों तो कई कारण गिनाए जा सकते हैं। पर बड़ा कारण उस सरकार के कई सरपरस्त होना और यादव परिवार की अंतरकलह ही माने जाते हैं।

शुरुआती चार साल तो अखिलेश यादव नाम के मुख्यमंत्री थे। उनका रिमोट केवल पिता मुलायम सिंह यादव ही नहीं तीन चाचाओं रामगोपाल यादव, शिवपाल यादव और अमर सिंह के साथ सीमित संदर्भ में ही सही पर आजम खान के पास भी था। इसी से सरकार की छवि खराब हुई। चाचा शिवपाल को मंत्री पद से हटाया तो पिता मुलायम को पार्टी के अध्यक्ष पद से। संदेश यही गया कि मुलायम बेटे के नहीं छोटे भाई शिवपाल के पक्ष में थे। परिवार की दरार इतनी गहरी हो गई कि 2017 के विधानसभा चुनाव में शिवपाल यादव पर ही सपा उम्मीदवारों को हरवाने के आरोप लगे। ऊपर से कांग्रेस के साथ गठबंधन के फैसले की मुलायम सिंह ने खुलकर आलोचना कर दी।

शिवपाल जसवंत नगर से विधायक तो बने लेकिन उन पर सपाइयों ने ही भाजपा का मोहरा होने के आरोप लगाए। शिवपाल ने 2018 मेंं अपनी अलग प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बनाकर 2019 का लोकसभा चुनाव भी लड़ा। पर 2019 की हार से अखिलेश यादव ने सबक ले अपनी रणनीति बदल दी। किसी बड़े दल से गठबंधन न करना और कुनबे से किनारा करना उनकी परिपक्वता मानी जा रही है।

भाजपाई उन पर परिवारवादी होने का आरोप लगा रहे हैं पर जनता देख रही है कि इस चुनाव में चाचा शिवपाल के अलावा यादव परिवार के सभी राजनीतिक सूरमा चुनावी बिसात से दूर हैं। डिंपल, अक्षय, तेज प्रताप, धर्मेंद्र और आदित्य कोई चुनावी मैदान में नहीं है। चाचा शिवपाल ने भतीजे से मांगे तो सौ टिकट थे पर मिला महज एक, वह भी अपना। वे समझ चुके हैं कि सियासत में उनके बेटे आदित्य का कल्याण अखिलेश ही करेंगे।

आरोपों की आपदा
उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव में मतदान के बाद कांग्रेस भाजपा में आरोप-प्रत्यारोप दौर चल पड़ा है हरिद्वार जिला के लक्सर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के उम्मीदवार संजय गुप्ता ने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मदन कौशिक पर भीतरघात करने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि कौशिक बसपा, आप और कांग्रेस के प्रत्याशियों से सांठगांठ की हुई थी और कौशिक ने उन्हें और कैबिनेट मंत्री स्वामी यतिश्वरानंद को हरिद्वार ग्रामीण सीट से विधानसभा का चुनाव हराने की साजिश रची है। उन्होंने मदन कौशिक को पार्टी से निष्कासित और उनकी बेनामी संपत्ति की जांच कराने की मांग की है। उन्होंने कहा कि मावा बेचने वाला विधायक बनने के बाद 19 सालों में करोड़पति अरबपति कैसे बन गया? इसकी जांच की जाए।

उधर चंपावत, काशीपुर के भाजपा उम्मीदवारों ने भी भीतरघात के आरोप लगाए हैं। दूसरी ओर कांग्रेस के नेता हरीश रावत ने उत्तराखंड में कांग्रेस के बहुमत में आने की बात कही और कहा है कि उनके पास दो ही विकल्प हैं या तो वे मुख्यमंत्री बने या अपने घर बैठ जाएं। हरीश रावत समर्थक राज्यसभा सांसद प्रदीप टम्टा ने भी कांग्रेस के बहुमत में आने पर रावत को मुख्यमंत्री बनाने की मांग की है नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह का कहना है कि पार्टी हाईकमान ही मुख्यमंत्री बनाने का फैसला करेगा कांग्रेस में यह स्थिति हो गई है -‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा।’

कांग्रेस में उधर पार्टी हाईकमान ने मुख्यमंत्री के तीन दावेदार पेश किए हैं हरीश रावत, प्रीतम सिंह और गणेश गोदियाल। हरीश रावत चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष हैं, प्रीतम सिंह विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और गणेश गोदियाल प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं। विधानसभा चुनाव के दौरान उत्तराखंड दौरे पर आए कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला से जब मीडिया ने पूछा कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा तो उन्होंने तीन नाम गिना दिए।

हक मांगती आंगनबाड़ी
चुनाव के समय आंगनबाड़ी कार्यकर्ता राजनीतिक दलों के लिए बड़ा सियासी कार्ड बनकर सामने आए हैं। देश भर में स्वास्थ्य योजनाओं समेत अन्य योजनाओं में महिलाओं की यह एक बड़ी टीम है, जो लंबे समय से अपने अधिकारों के लिए लड़ रही है। इन कर्मचारियों की एक बड़ी संख्या है जो राज्यों में भी सियासी समीकरणों पर असर डालती है। हाल ही में हरियाणा सरकार ने इन कर्मचारियों के मानदेय बढ़ाने का निर्णय लिया है, जिससे अन्य राज्यों की तुलना में इन कर्मचारियों का वेतन अधिक हो गया है।

इसके बाद से ही दिल्ली में भी इन कार्यकर्ताओं ने वेतन बढ़ाने के आंदोलन शुरू किया। अपने हक के लिए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के आवास पर प्रदर्शन किया। करीब 17 दिन से ये कार्यकर्ता वेतन बढ़ाने की मांग कर रही हैं। इन कार्यकर्ताओं को करीब 4500 रुपए का मासिक वेतन मिलता है। इससे पूर्व इन कर्मचारियों के वेतन में 2017 में बढ़ोतरी हुई थी।

इसके लिए भी कार्यकर्ताओं को प्रदर्शन करना पड़ा था। इन कर्मचारियों का वेतन भले ही नहीं बढ़ा हो लेकिन बजटीय प्रावधानों में इस मद के लिए बीते हर साल में पैसा बढ़ रहा है। यह अब बढ़ कर करीब 20 हजार करोड़ तक पहुंच गया है। लेकिन यह कार्यकर्ताओं तक कैसे पहुंचे यह बड़ा सवाल है। (संकलन : मृणाल वल्लरी)