इससे पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति यानि टीआरएस का नाम बदलकर बीआरएस यानि भारत राष्ट्र समिति किया था। खुद फरमाया था कि पार्टी के नाम में तेलंगाना होने से इसके क्षेत्रीय होने का संदेश जाता है। कुल मिलाकर तीन मुख्यमंत्री और एक पूर्व मुख्यमंत्री ही उनके बुलावे पर जुटे। अब जरा जुटने वालों की सियासी ताकत का आकलन कर लें।
केसीआर के अपने तेलंगाना में लोकसभा की महज 17 सीटें हैं। पिछले दो चुनावों का विश्लेषण करें तो 2014 की तुलना में 2019 में उनकी सीटें 12 से घटकर नौ रह गई। रही अरविंद केजरीवाल की बात तो दिल्ली में लोकसभा की महज सात सीटें हैं। केजरीवाल के खाते में एक भी नहीं। कुछ यही स्थिति भगवंत मान के पंजाब की ठहरी। कहने को सूबे में 13 सीटें हैं, पर आम आदमी पार्टी के पास एक भी नहीं। पिछली बार अकेले मान जीते थे। मुख्यमंत्री बने तो लोकसभा सीट छोड़नी पड़ी। उपचुनाव में वह भी जाती रही।
अब बचे पी विजयन, सो केरल में जरूर बीस सीटें हैं। सबको जोड़ लें तो चारों मुख्यमंत्रियों की ताकत 54 लोकसभा सीटों से आगे नहीं जाती। रही बात अखिलेश यादव की। उत्तर प्रदेश में सीट तो अस्सी हैं पर सपा तो 2014 और 2019 दोनों ही चुनाव में पांच का आंकड़ा पार नहीं कर पाई। फिर किस बूते केसीआर भाजपा को उखाड़ फेंकने और एचडी देवगौड़ा की तर्ज पर खुद प्रधानमंत्री बन जाने का ख्वाब पाल रहे हैं।
देश में अभी तक तीन बार ही गैर भाजपा-गैर कांग्रेसी दलों के प्रधानमंत्री बने हैं। वीपी सिंह 1989 में बने थे तो भाजपा और वाममोर्चे दोनों का समर्थन था। जनता दल की अपनी ताकत भी कम नहीं थी। इसी तरह 1996 में अगर संयुक्त मोर्चे की सरकार बन पाई थी तो श्रेय बाहर से समर्थन करने वाली कांग्रेस और माकपा को ज्यादा था। रही बात 1977 की तो तब समूचा विपक्ष मिलकर लड़ा था।
अतीत के 1991 और 2004 के अनुभवों से साबित हुआ है कि विपक्ष की साझा सरकार तभी पांच साल चल पाई जब उसका नेतृत्व कांग्रेस के पास था। अभी तो गैर भाजपाई-गैर कांग्रेसी दल आपस में ही छुआछूत की बीमारी से ग्रस्त हैं।
आवारा वादा
आवारा पशुओं की समस्या उत्तर प्रदेश में इतनी गंभीर हो चुकी है कि किसान अब बागी तेवर अपना रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पार्टी के सबसे बड़े नेताओं ने किसानों से वादा किया था कि चुनाव निपटने के बाद इस समस्या से किसानों को निजात दिलाएंगे। निराश्रित गोवंश के पालन-पोषण के लिए योजना भी बना दी।
पर इसमें एक गोवंश के लिए प्रतिदिन तीस रुपए का प्रावधान किया। जबकि एक मवेशी औसतन रोजाना अस्सी से सौ रुपए तक का चारा खा जाता है। जो सरकारी गौशालाएं खुली भी, वहां के चौकीदार इन भूखे मवेशियों को रात में छुट्टा छोड़ रहे हैं। नतीजतन इन मवेशियों के झुंड किसानों की फसलों को बर्बाद कर रहे हैं। अब तो कई जगह बंदर भी फसल को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इसी तरह की समस्या किसानों को नील गाय से तो पहले से ही थी। कई जगह तो आवारा सांड के कारण कई लोगों की जान जा चुकी है।
पूरे प्रदेश में अपनी फसलों को छुट्टा जानवरों से बचाने के लिए किसान रात भर जागकर अपने खेतों की रखवाली करने को मजबूर हैं। फर्रुखाबाद में नाराज किसानों ने छुट्टा पशुओं को तहसील के भीतर छोड़ दिया। नतीजतन तहसील में काम करने वाला राजस्व विभाग का पूरा अमला बोरिया बिस्तर छोड़कर भागने को मजबूर हो गया। भाजपा के ही सांसद वरुण गांधी तो इस समस्या को लेकर अपनी पार्टी पर वादा खिलाफी का खुला आरोप भी लगा चुके हैं।
बाजरे दा सिट्टा
बाजरे की रोटी, छाछ के साथ बाजरा महेरी, बाजरा पापड़ी चाट, बाजरे की खिचड़ी…। यह साल बाजरे के नाम पर है तो सरकारी महोत्सवों की खाद्य-सूची में बाजरा राज करेगा ही। चाहे पिछले दिनों संसद भवन परिसर में लगा बाजरा खाद्य-महोत्सव हो या भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक, नेताओं और पत्रकारों के लिए परोसे गए अल्पाहार से लेकर मुख्य भोजन तक में मोटे अनाज को प्राथमिकता दी गई।
संसद भवन परिसर में तो विपक्षी दलों के नेताओं ने कह दिया कि अभी हमारा पेट ये सब पचा नहीं पाएगा। लेकिन भाजपा कार्यकारिणी समित की बैठक में भाजपा नेता तो इसे किसी भी तरह से नकार नहीं सकते थे।
भोजनाअवकाश में एक वरिष्ठ नेता कहते पाए गए कि चाहे बाद में दवा खानी पड़े अभी तो यही खाना है। कुछ पत्रकारों ने भी उत्साह में बाजरे का ज्यादा सेवन कर लिया और उन्हें अहसास हुआ कि उनका शरीर इसे पचाने लायक मेहनत नहीं कर पाता है। मोटे अनाज सेहत के लिए वरदान तो हैं, लेकिन खाना और पचाना बहुत कुछ हमारी जीवनशैली और आदत पर निर्भर करता है। अचानक से ही किसी अनाज के सरकारी तमगा पा लेने के बाद वह किसी-किसी के शरीर पर विपक्ष सा वार करता है।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)